Book Title: Jain Apbhramsa katha Sahitya ka Mulyankan
Author(s): Manmal Kudal
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 1
________________ जैन अपभ्रंश कथा-साहित्य का मूल्यांकन मध्यकाल की साहित्यिक प्रवृत्तियों के उद्भव तथा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को खोजने की जिज्ञासा से अनेक विद्वानों ने अपभ्रंश साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया है। इनमें प्रमुख रूप से श्री नाथूराम प्रेमी, डा० हीरालाल जैन, डा० हरिवंश कोछड़, डा० नामवर सिंह, डा० देवेन्द्रकुमार जैन, डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री, डा० ए० एन० उपाध्याय, डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल, डा० हरिवल्लभ भायाणी डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। अपभ्रंश साहित्य का विकास ई० पूर्व ३०० से १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक होता रहा है। अपभ्रंश भाषा में प्रचुर साहित्य की रचना हुई है। अपभ्रंश काव्य को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया गया है'-- १. प्रबन्ध काव्य, २. मुक्तक काव्य । प्रबन्ध काव्य को तीन भागों में बांटा गया है- (१) महाकाव्य, (२) एकार्थं काव्य, और ( 3 ) खण्ड काव्य । महाकाव्य को चार भागों में बांटा गया है— (क) पुराणकाव्य, (ख) चरितकाव्य, (ग) कथाकाव्य, और (घ) ऐतिहासिक काव्य । कथाकाव्य को तीन भागों में बांटा गया है - ( १ ) प्रेमाख्यान कथाकाव्य, (२) वृत्तमाहात्म्यमूलक कथाकाव्य, (३) उपदेशात्मक कथाकाव्य । मुक्तक-काव्य को चार भागों में बाँटा गया है – (१) गीति-काव्य, (२) दोहा-काव्य, (३) चउपई-काव्य, (४) फुटकर काव्य (स्वीज-पूजा आदि) । अपक्षय साहित्य प्रधान रूप से धार्मिक एवं आध्यात्मिक है। उसमें वीर और श्रृंगाररस को भी यथोचित अभिव्यक्ति हुई है। शान्तरस का जैसा निरूपण अपभ्रंश साहित्य में मिलता है, वैसा अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। विशेष रूप से जैन मुनियों के साहित्य में शान्त रस का स्वानुभूत वर्णन मिलता है। अपभ्रंश में लौकिक रस का भी अच्छा निरूपण हुआ है । यहां हमारा प्रतिपाद्य विषय अपभ्रंश के कथा-साहित्य का ही मूल्यांकन करना है । अतः संक्षेप में अपभ्रंश के कथा-काव्य पर ही श्री मानमल कुदाल प्रकाश डाला जाएगा । काव्य की भाव-भूमि पर अपभ्रंश के कथा- काव्यों में लोक-कथाओं का साहित्यिक रूप में किन्हीं अभिप्रायों के साथ वर्णन किया गया लक्षित होता है। लोक-जीवन के विविध तत्त्व इन कथाकाव्यों में सहज ही अनुस्यूत हैं। क्या कथा, क्या भाव और क्या छन्द और शैली सभी लोकधर्मी जीवन के अंग जान पड़ते हैं । अतः कथा - काव्य का नायक आदर्श पुरुष ही नहीं, राजा, राजकुमार, वणिक, राजपूत आदि कोई भी साधारण पुरुष अपने पुरुषार्थ से अग्रसर हो अपने व्यक्तित्व तथा गुणों को प्रकट कर यशस्वी परिलक्षित होता है। एक उभरता हुआ व्यक्तित्व सामान्य रूप से सभी कथा - काव्यों में दिखाई पड़ता है । अपभ्रंश के इन कथा - काव्यों के अध्ययन से जहां सामाजिक यथार्थता का परिज्ञान होता है, वहीं धार्मिक वातावरण में तथा इतिहास के परिप्रेक्ष्य में जातीयता और परम्परा का भी बोध होता है । अपभ्रंश के विशुद्ध प्रमुख कथा काव्य निम्नलिखित हैं -- १. भविसयतका - धनपाल ) २. जिनदत्तकथा - ( लाबू) ३. विलासवती कथा ( सिद्ध साधारण ) १. डा० देवेन्द्रकुमार शास्त्री "भविसयत कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य", पृ० ६१. : २. देवेन्द्रकुमार शास्त्री "अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध प्रवृत्तियाँ", पृ० ३४. जैन साहित्यानुशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only १०७ www.jainelibrary.org

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