Book Title: Jain Anuman ki upalabdhiya Author(s): Darbarilal Kothiya Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ anceTS अर्चमार्चन चतुर्थ खण| २८ पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओं की परिकल्पना अकलंकदेव ने कुछ ऐसे हेतुओं की परिकल्पना की है जो उनसे पूर्व नहीं माने गये थे। उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये तीन हेतु हैं। इन्हें किसी अन्य तार्किक ने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं। किन्तु अकलंक ने इनकी आवश्यकता एवं अतिरिक्तता का स्पष्ट निर्देश करते हुए स्वरूप-प्रतिपादन किया है। अत: यह उनकी देन कही जा सकती है। प्रतिपाद्यों की अपेक्षा अनुमान-प्रयोग अनुमान प्रयोग के सम्बन्ध में जहाँ अन्य भारतीय दर्शनों में व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न प्रतिपाद्यों की विवक्षा किये बिना अवयवों का सामान्य कथन मिलता है वहां जैन विचारकों ने उक्त दोनों प्रतिपाद्यों की अपेक्षा उनका विशेष प्रतिपादन किया है। व्युत्पन्नों के लिए उन्होंने पक्ष और हेतु ये दो अवयव अावश्यक बतलाये हैं, उन्हें दृष्टान्त आवश्यक नहीं है। “सर्व क्षणिकं सत्वात्" जैसे स्थलों में बौद्धों ने, “सर्वमभिधेयं प्रमेयत्वात्" जैसे केवलान्वयिहेतुक अनुमानों में नैयायिकों ने भी दृष्टान्त को स्वीकार नहीं किया । अव्युत्पन्नों के लिए उक्त दोनों अवयवों के साथ दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवों की भी जैन चिन्तकों ने यथायोग्य आवश्यकता प्रतिपादित की है। इसे और स्पष्ट यों समझिए-- गद्धपिच्छ, समन्तमद्र, पूज्यपाद और सिद्धसेन के प्रतिपादनों से अवगत होता है कि प्रारम्भ में प्रतिपाद्य-सामान्य की अपेक्षा से पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवों से अभिप्रेतार्थ (साध्य) की सिद्धि की जाती थी। पर उत्तरकाल में अकलंक का संकेत पाकर कुमारनन्दि और विद्यानन्द ने प्रतिपाद्यों को व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दो वर्गों में विभक्त करके उनकी अपेक्षा से पृथक्-पृथक् अवयवों वा कथन किया। उनके बाद माणिक्यनन्दि, देवसूरि आदि परवर्ती जैन-तर्क-ग्रन्थकारों ने उनका समर्थन किया और स्पष्टतया व्युत्पन्नों के लिए पक्ष और हेतु ये दो तथा अव्युत्पन्नों के बोधार्थ उक्त दो के अतिरिक्त दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये तीन सब मिलाकर पाँच अवयव निरूपित किये। भद्रबाहु ने प्रतिज्ञाशुद्धि आदि दश अवयवों का भी उपदेश दिया, जिसका अनुसरण देवसूरि, हेमचन्द्र और यशोविजय ने किया। व्याप्ति का ग्राहक एकमात्र तर्क अन्य भारतीय दर्शनों में भूयोदर्शन, सहचारदर्शन और व्यभिचाराग्रह को व्याप्तिग्राहक माना गया है । न्यायदर्शन में वाचस्पति और सांख्यदर्शन में विज्ञानभिक्षु इन दो ताकिकों ने व्याप्तिग्रह की उपर्युक्त सामग्री में तर्क को भी सम्मिलित कर लिया। उनके बाद उदयन, गंगेश, वर्द्धमान प्रभृति ताकिकों ने भी उसे व्याप्तिग्राहक मान लिया। पर, स्मरण रहे, जैन परम्परा में आरम्भ से तर्क को, जिसे चिन्ता, ऊहा आदि शब्दों से व्यवहृत किया गया है, अनुमान की एकमात्र सामग्री के रूप में प्रतिपादित किया है । अकलंक ऐसे जैन तार्किक हैं, जिन्होंने वाचस्पति और विज्ञानभिक्षु से पूर्व सर्वप्रथम तर्क को व्याप्तिग्राहक समर्थित एवं सम्पुष्ट किया तथा सबलता से उसका प्रामाण्य स्थापित किया। उनके पश्चात् सभी ने उसे व्याप्तिग्राहक स्वीकार कर लिया। तथोपपत्ति और अन्यथानुपत्ति यद्यपि बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति और अन्तर्व्याप्ति के भेद से व्याप्ति के तीन भेदों, समव्याप्ति और विषमव्याप्ति के भेद से उसके दो प्रकारों तथा अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7