Book Title: Jain Agamo me Varnit Dhyan Sadhikaye Author(s): Shanta Bhanavat Publisher: Z_Sajjanshreeji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012028.pdf View full book textPage 1
________________ जैन आगमों में भगवान महावीर का तत्त्व-चिन्तन एवं उसे आत्मसात कर साधना पथ पर बढ़ने वाले श्रमण-श्रमणियों और श्रावक-श्राविकाओं का वर्णन है। ध्यान, मन को इन्द्रिय-विषयों से हटाकर आत्म-स्वरूप की और अभिमुख करता है । इससे बाहरी जैन आगमों में वर्णित वृत्तियाँ अन्तर्मुखी बनती हैं। ध्यान आन्तरिक ऊर्जा का स्रोत है। इससे आत्मा निर्मल, शक्तिसम्पन्न और शुद्ध बनती है । जीवन में पवित्रता, विचारों में विशुद्धि और व्यवहार में प्रेम, करुणा, मैत्री व ध्यान-साधिकाएँ विश्व-वत्सलता का भाव जागृत होता है । कर्म-निर्जरा में ध्यान सहा यक होता है । यह आभ्यन्तर तप है। इससे कर्म अर्थात् पाप दग्ध होकर नष्ट हो जाते हैं। कर्मों के नष्ट होने से आत्मा की सुषुप्त शक्तियां जाग उठती हैं। आत्मा परमात्मा बन जाती है । आत्मा के इस चरम आध्यात्मिक विकास में जैन दर्शन में स्त्री और पुरुष में किसी प्रकार का भेद नहीं किया गया है। मानव स ष्टि के मंगल रथ के दो चक्र हैं--पुरुष और नारी । रथ का एक चक्र दुर्बल अथवा क्षत-विक्षत रहने से जिस प्रकार रथ की गति में अवरोध पैदा हो जाता है, उसी प्रकार मानव सृष्टि का कोई एक चक्र उपेक्षित, दुर्बल व अशक्त रहने से उसकी गति भी लड़खड़ा जाती है। इसलिये भारतीय मनीषियों ने मानव सृष्टि के इन दोनों अंगों को समान महत्व दिया । उपादेयता एवं उपकारिता में कोई भी अंग किसी से कम नहीं है । वेद, उपनिषद् एवं आगम ग्रन्थों के अनुशीलन से यह बात और स्पष्ट हो जाती है कि नारी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की आदि शक्ति रही है। मानव सभ्यता के विकास में ही नहीं किन्तु उसके -डॉ० शान्ता भानावत निर्माण में भी नारी का योगदान पुरुष से कई गुना अधिक है। भारतीय नारी का समूचा इतिहास नारी के ज्वलन्त त्याग-प्रेम-निष्ठा-सेवाप्रिन्सीपल, श्री वीर बालिका महा तप और आत्मविश्वास के दिव्य आलोक से जगमगा रहा है। विद्यालय, जयपुर । आत्मा की दृष्टि से श्रमण संस्कृति ने नारी और पुरुष में कोई तात्त्विक भेद नहीं माना। उसने पुरुपों की भाँति स्त्रियों को भी जैन धर्म एवं दर्शन की विदुषी लेखिका तमाम अधिकार दिये । आत्म-विकास की श्रेष्ठतम स्थिति मोक्ष है । मोक्ष के द्वार तक पुरुष भी पहुँचा है और नारी भी पहुँची है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार सर्वप्रथम मोक्ष जाने वाली (वर्तमान कालचक्र की अपेक्षा) स्त्री ही थी। वह थी भगवान ऋषभदेव की माता मरुदेवी । जिन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे ही निर्मोह दशा में कैवल्य प्राप्त कर लिया। ( १५० ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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