Book Title: Jain Agamo me Hua Bhashik Swarup Parivartan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 2
________________ 240 जैन आगमों में हुआ भाषिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श जैन-शौरसेनी और जैन-महाराष्ट्री ही ऐसी भाषायें हैं, जिनमें जैनधर्म के विपुल साहित्य का सृजन हुआ है। पैशाची प्राकृत के प्रभाव से युक्त मात्र एक ग्रन्थ प्राकृत धम्मपद मिला है। इन्हीं जन-बोलियों को जब एक साहित्यिक भाषा का रूप देने का प्रयत्न जैनाचार्यों ने किया, तो उसमें भी आधारगत विभिन्नता के कारण शब्द रूपों की विभिन्नता रह गई। सत्य तो यह है कि विभिन्न बोलियों पर आधारित होने के कारण साहित्यिक प्राकृतों में भी शब्द स्पों की यह विविधता रह जाना स्वाभाविक है। विभिन्न बोलियों की लक्षणगत, विशेषताओं के कारण ही प्राकृत भाषाओं के विविध स्प बने है। बोलियों के आधार पर विकसित इन प्राकृतों के जो मागधी, शौरसेनी, महाराष्ट्री आदि रूप बने हैं, उनमें भी प्रत्येक में वैकल्पिक शब्द रूप पाये जाते हैं। अतः उन सभी में व्याकरण की दृष्टि से पूर्ण एकरूपता का अभाव है। फिर भी भाषाविदों ने व्याकरण के नियमों के आधार पर उनकी कुछ लक्षणगत विशेषताएँ मान ली है। जैसे मागधी में "स" के स्थान पर "श", "र" के स्थान पर "ल" का उच्चारण होता है। अतः मागधी में "पुरुष" का "पुलिश" और "राजा" का "लाजा" रूप पाया जाता है, जबकि महाराष्ट्री में "पुरिस" और "राया" स्प बनता है। जहाँ अर्द्धमागधी में "त" श्रुति की प्रधानता है और व्यंजनों के लोप की प्रवृत्ति अल्प है, वहीं शौरसेनी में "द" श्रुति की और महाराष्ट्री में "य" श्रुति की प्रधानता पायी जाती है तथा लोप की प्रवृत्ति अधिक है। दूसरे शब्दों में अर्द्धमागधी में "त" यथावत रहता है, शौरसेनी में "त" के स्थान पर "द" और महाराष्ट्री में लुप्त-व्यंजन के बाद शेष रहे "अ" का "य" होता है प्राकृतों में इन लक्षणगत विशेषताओं के बावजूद भी धातु रूपों एवं शब्द रूपों में अनेक वैकल्पिक रूप तो पाये ही जाते हैं। यहाँ यह भी स्मरण रहे कि नाटकों में प्रयुक्त विभिन्न प्राकृतों की अपेक्षा जैन ग्रन्थों में प्रयुक्त इन प्राकृत भाषाओं का रूप कुछ भिन्न है और किसी सीमा तक उनमें लक्षणगत बहुरूपता भी है। इसीलिए जैन आगमों में प्रयुक्त मागधी को अर्द्धमागधी कहा जाता है, क्योंकि उसमें मागधी के अतिरिक्त अन्य बोलियों के प्रभाव के कारण मागधी से भिन्न लक्षण भी पाये जाते हैं। जहाँ अभिलेखीय प्राकृतों का प्रश्न है उनमें शब्द रूपों की इतनी अधिक विविधता या भिन्नता है कि उन्हें व्याकरण की दृष्टि से व्याख्यायित कर पाना सम्भव ही नहीं है। क्योंकि उनकी प्राकृत साहित्यिक प्राकृत न होकर स्थानीय बोलियों पर आधारित है। यापनीय एवं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में जिस माषा का प्रयोग हुआ है, वह जैन-शौरसेनी कही जाती है। उसे जैन-शौरसेनी इसलिये कहते हैं कि उसमें शौरसेनी के अतिरिक्त अर्द्धमागधी के भी कुछ लक्षण पाये जाते हैं। उस पर अर्द्धमागधी -- का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। क्योंकि इसमें रचित ग्रन्थों का आधार अर्द्धमागधी आगम ही थे। इसी प्रकार श्वेताम्बर आचार्यों ने प्राकृत के जिस भाषायी रूप को अपनाया वह जैन-महाराष्ट्री कही जाती है। इसमें महाराष्ट्री के लक्षणों के अतिरिक्त कहीं-कहीं अर्द्धमागधी और शौरसेनी के लक्षण भी पाये जाते हैं, क्योंकि इसमें रचित ग्रन्थों का आधार भी मुख्यतः अर्द्धमागधी और अंशतः शौरसेनी साहित्य रहा है। अतः जैन परम्परा में उपलब्ध किसी भी अन्य की प्राकृत का स्वस्य निश्चित करना एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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