Book Title: Jain Agamo me Hua Bhashik Swarup Parivartan
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf
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प्रो. सागरमल जैन
इस तथ्य को हम इस प्रकार भी समझा सकते हैं कि यदि एक अध्ययन, उद्देशक या एक पैराग्राफ में यदि 70 या 80 प्रतिशत प्रयोग महाराष्ट्री या "य" श्रुति के हैं और मात्र 10 प्रतिशत प्रयोग प्राचीन अर्द्धमागधी के हैं तो वहाँ पाठ के महाराष्ट्री रूप को रखना ही उचित होगा। सम्भव है कि वह प्रक्षिप्त रूप हो, किन्तु इसके विपरीत उनमें 60 प्रतिशत प्राचीन रूप हैं और 40 प्रतिशत अर्वाचीन महाराष्ट्री के रूप हैं, तो वहाँ प्राचीन स्प रखे जा सकते हैं।
पुनः आगम संपादन और पाठ शुद्धीकरण के इस उपक्रम में दिये जाने वाले मूलपाठ को शुद्ध एवं प्राचीन रूप में दिया जाय, किन्तु पाद टिप्पणियों में सम्पूर्ण पाठान्तरों का संग्रह किया जाय। इसका लाभ यह होगा कि कालान्तर में यदि कोई संशोधन कार्य करें तो उसमें सुविधा हो।
अन्त में मैं यह कहना चाहूँगा कि प्रो. के. आर. चन्द्रा अपनी अनेक सीमाओं के बावजूद भी जो यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और श्रमसाध्य कार्य कर रहे हैं, उसकी मात्र आलोचना करना कथापि उचित नहीं है, क्योंकि वे जो कार्य कर रहे हैं वह न केवल करणीय हैं बल्कि एक सही दिशा देने वाला कार्य है। हम उन्हें सुझाव तो दे सकते है, लेकिन अनधिकृत रूप से येन-केन प्रकारेण सर्वज्ञ और शास्त्र-श्रद्धा की दुहाई देकर उनकी आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं रखते। क्योंकि वे जो भी कार्य कर रहे हैं वह बौद्धिक ईमानदारी के साथ, निर्लिप्त भाव से तथा सम्प्रदायगत आग्रहों से ऊपर उठकर कर रहे हैं, उनकी नियत में भी कोई शंका नहीं की जा सकती। अतः मैं जैन विद्या के विद्वानों से नम्र निवेदन करूँगा कि वे शान्तचित्त से उनके प्रयत्नों की मूल्यवत्ता को समझें और अपने सुझावों एवं सहयोग से उन्हें इस दिशा में प्रोत्साहित करे।
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