Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Arddhamagadhi ya Shaurseni Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf View full book textPage 5
________________ १४ 'बोधपाहुड', जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध है, उसकी टीका में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागरजी लिखते हैं कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना उपदेश दिया था। प्रमाण के लिये उस टीका के हिन्दी अनुवाद का यह अंश प्रस्तुत है। 'अर्थ मगधदेश भाषात्मक और अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। शंका--- अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, क्योंकि भगवान् की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर- मगध देव के सान्निध्य में होने से।' आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'नन्दीश्वर भक्ति' के अर्थ में लिखा है--- “एक योजन तक भगवान् की वाणी स्वयंमेव सुनायी देती है। उसके आगे संख्यात योजनों तक उस दिव्य ध्वनि का विस्तार मगध जाति के देव करते हैं। अत: अर्धमागधी भाषा देवकृत है।" (षट्प्राभृतम् , चतुर्थ बोधपाहुड-टीका, गाथा ३२, पृ० ११९) मात्र यही नहीं, वर्तमान में भी दिगम्बर-परम्परा के महान् सन्त एवं आचार्य विद्यासागरजी के प्रमुख शिष्य मुनिश्री प्रमाणसागरजी अपनी पुस्तक जैनधर्म-दर्शन, (प्रथम संस्करण) पृ०४० पर लिखते हैं कि 'उन भगवान् महावीर का उपदेश सर्वग्राह्य अर्धमागधी भाषा में हुआ।' - जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह मानकर चल रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में हआ था और इसी भाषा में उनके उपदेशों के आधार पर आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा है? (ख) उपरोक्त आगमिक प्रमाणों की चर्चा के अलावा व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं१. यदि भगवान् महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में दिये तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में आगमों का प्रणयन किया होगा। अतः आगमों की मूलभाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही है, यह मानना होगा। इस ग्रन्थ का मूल संस्कृत इस प्रकार हैसर्वार्धमागधीया भाषा भवति, कोऽर्थः अर्धं भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकं, अर्धं च सर्वभाषात्मकं, कथमेवं देवोपनीतत्वं तदतिशयस्येति चेत्? मगधदेश सन्निधाने तथापरिणतया भाषया संस्कृत भाषया प्रवर्तते। सर्वजनेता विषया मैत्री भवति सर्वे हि जनसमूहा मागधप्रीतिंकरदेवातिशयवशान्मागधभाषया भाषन्तेऽन्योन्यं मित्रतया च वर्तन्ते इति द्वातिशयो। -षट्प्राभृतादि-संग्रह: श्री मा०दि० जैन ग्रन्थमाला समिति, वि०सं० १९७७, पृ० ९९, गाथा, ३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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