Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Arddhamagadhi ya Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf
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ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलत: यापनीय-परम्परा के रहे हैं और इनमें अनेकों गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य आगमों, विशेषरूप से नियुक्तियों और प्रकीर्णकों के समरूप हैं। ब. कुन्दकुन्द, ईसा की पांचवीं-छठी शती के लगभग के अन्थ५. समयसार
नियमसार प्रवचनसार पञ्चास्तिकायसार
अष्टपाहुड (इसका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध है, क्योंकि इसकी भाषा __ में अपभ्रंश के शताधिक प्रयोग मिलते हैं और इसका भाषा स्वरूप भी कुन्दकुन्द
की भाषा से परवर्ती है)। स. अन्य ग्रन्थ (ईसा की पाँचवी-छठी शती के पश्चात्)१०. तिलोयपण्णत्ति-यतिवृषभ ११. लोकविभाग १२. जम्बूदीपपण्णत्ति १३. अंगपण्णत्ति १४. क्षपणसार १५. गोम्मटसार (दसवीं शती)
इनमें से 'कसायपाहुड' को छोड़कर कोई भी ग्रन्थ ऐसा नहीं है, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त एवं सप्तभंगी की चर्चा अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में पाँचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनुपस्थित है। श्वेताम्बर आगमों में 'समवायांग' और 'आवश्यकनियुक्ति' की दो प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः अनुपस्थित है, जबकि 'षट्खण्डागम', 'मूलाचार', 'भगवतीआराधना' आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इसकी चर्चा पायी जाती है, अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के 'तत्त्वार्थसूत्र'-मूल और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएँ गुणस्थान की विस्तृत चर्चाएँ प्रस्तुत करती हैं। उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अत: यह निश्चित है कि गुणस्थान का सिद्धान्त पाँचवीं शती में अस्तित्व में आया है। अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ, जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व का नहीं हो सकता। प्राचीन शौरसेनी आगमतुल्य ग्रन्थों में मात्र ‘कसायपाहुड' ही ऐसा है, जो स्पष्टत:
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