Book Title: Jain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 12
________________ मैं तटस्थ दृष्टि से चिन्तन करता हूँ तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि दोनों ही परम्पराओं के आगम ग्रन्थों में मौलिक दृष्टि से कोई विशेष अन्तर नहीं है। दोनों ही ग्रन्थों में तत्त्वविचार, जीवविचार, कर्मविचार, लोकविचार, ज्ञान-विचार समान है। दार्शनिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। आचार परम्परा की दृष्टि से भी चिन्तन करें तो वस्त्र के उपयोग के सम्बन्ध में कुछ मतभेद होने पर भी विशेष अन्तर नहीं रहा। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में नग्नत्व पर अत्यधिक बल दिया गया किन्तु व्यवहार में नग्न मुनियों की संख्या बहुत ही कम रही और दिगम्बर भट्टारक आदि की संख्या उनसे बहुत अधिक रही। श्वेताम्बर आगम साहित्य में जिनकल्प को स्थविरकल्प से अधिक महत्त्व दिया गया किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से आर्य जम्बू के पश्चात् जिनकल्प का निषेध कर दिया गया। दिगम्बर परम्परा में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है किन्तु दिगम्बर परम्परा मान्य षट् खण्डागम में मनुष्य-स्त्रियों के गुणस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है कि 'मनुष्य-स्त्रियाँ सम्यमिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्तक होती हैं ।१६ इसमें 'संजद' शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य स्त्री को 'संयत' गुणस्थान हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रवल विरोध का वातावरण समुत्पन्न हुआ तब ग्रन्थ के सम्पादक पं० हीरालालजी जैन आदि ने पुनः उसका स्पष्टीकरण 'षट् खण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना' में किया किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री (कर्णाटक) में षट्खण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी 'संजद' शब्द मिला है। . बट्टके रस्वामि विरचित मूलाचार में आर्यिकाओं के आचार का विश्लेषण करते हुए कहा है जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं वे जगत में पजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं। इसमें भी आयिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है। किन्तु बाद में टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में स्त्री निर्वाण का निषेध किया है। आचार के जितने भी नियम हैं उनमें महत्त्वपूर्ण नियम उद्दिष्ट त्याग का है जिसका दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से महत्त्व रहा है । १६ सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजदासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति)-ट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ। षट्खण्डागम, भाग १, सूत्र ६३ पृ० ३३२, प्रका०-सेठ लक्ष्मीचन्द शिलाबराय, जैन साहित्योद्धारक फंड, कार्यालय अमरावती, (बरार) सन् १९३६ १७. एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। ते जगपुज्ज कित्ति सुहं च लभ्रूण सिझंति ।। -मूलाधार ४/१९६, पृ० १६०

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