Book Title: Jain Acharyo ka Sanskrut Kavya Shastra me Yogadan Author(s): Amarnath Pandey Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf View full book textPage 4
________________ वाग्भट ने वाग्मटालङ्कार की रचना की है। इसमें काव्यालङ्कारसूत्राणि स्वानि किञ्चिद् विवण्महे । पाँच परिच्छेद हैं । इसमें काव्यफल, काव्योत्पत्ति, तन्मनस्तन्मर्याकृत्य विभाव्यं कोविदोत्तमैः ॥ काव्यशरीर, दोष, गुण, अलङ्कार और रस के विषय ___ अलङ्कारमहोदधि आठ तरङ्गों में विभक्त है। प्रथम में संक्षेप में विचार किया गया है। प्रथम परिच्छेद में में काव्यप्रयोजन आदि, द्वितीय में शब्द-वैचित्र्य, तृतीय 26 श्लोक, द्वितीय में 29 श्लोक, तृतीय में 181 श्लोक, में ध्वनिनिर्णय, चतुर्थ में गणीभूतव्यङ ग्य, पञ्चम में चतुर्थ में 152 श्लोक, और पञ्चम में 33 श्लोक हैं। दोष, षष्ठ में गुण, सप्तम में शब्दालङ्कार और अष्टम नरेन्द्रप्रभसरि ने मन्त्रीश्वर वस्तपाल की प्रेरणा में अर्थालङ्कार का निरूपण हुआ है। से अलङ्कारमहोदधि की रचना 1225-26 ई. में की।। अजितसेन ने अलङ्गारचिन्तामणि और शङ्गारराजशेखरसूरि ने न्यायकन्दलीपज्जिकाप्रशस्ति में नरेन्द्र मञ्जरी की रचना की शङ्गारमञ्जरी छोटी रचना प्रभसूरि को अलङ्कारमहोदधि का कर्ता बतलाया है----- है । अजितसेन ने शृङ्गारमजरी की रचना 1245 ई. के लगभग और अलङ्कारचिन्तामणि की रचना 1250तस्य गुरोः प्रियशिष्यः प्रभुनरेन्द्रप्रभः प्रभानाट्यः । 1260 ई. में की। अलङ्कारचिन्तामणि का प्रकाशन योऽलङ्कारमहोदधिमकरोत् काकुत्स्थकेलि च ॥12 भारतीय ज्ञानपीठ से 1973 ई. में हुआ है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने विस्तृत भूमिका और अनुवाद के नरचन्द्रसूरि नरेन्द्रप्रभसूरि के गुरू थे। नरेन्द्रप्रभसूरि साथ इस ग्रन्थ का सम्पादन किया है। इसमें पाँच ने गुरू की आज्ञा पर श्रीवस्तुपाल की प्रसन्नता के लिए परिच्छेद हैं । प्रथम (106 इलोक) का नाव अलङ्कारमहोदधि का निर्माण किया कविशिक्षाप्ररूपण, द्वितीय (1891 श्लोक) का नाम तन्मे मातिसविस्तरं कविकलासर्वस्वगर्वोदर । चित्रालङ्कारप्ररूपण, तृतीय (41 श्लोक) का नाम शास्त्रं ब्रूत किमप्यनन्यसदृशं बोधाय दुर्मेधसाम् । यमकादिवचन, चतुर्थ (345 श्लोक) का नाम अर्थाइत्यभ्यर्थनया प्रतीतमनसः श्रीवस्तुपालस्य ते । लङ्कारविवरण तथा पञ्चम (406 श्लोक) का नाम रसादिनिरूपण है। श्रीमन्तो नरचन्द्रसूरिगुरवः साहित्यतत्त्वं जगुः ।। तेषां निदेशादथ सद्गुरुणां श्रीवस्तुपालस्य मुदे तदेतत्। अरिसिंह तथा अमरचन्द्र की कृति काव्यकल्पलता चकार लिप्यक्षरसंनिविष्टं सूरिनरेन्द्रप्रभनामधेयः ॥ के नाम से प्रसिद्ध है । अरिसिंह ने इसके सूत्रों की रचना अलङ्कारमहोदधि (ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट बड़ोदा सं. 1942 ई.) के अन्तिम श्लोक में ग्रन्थ का रचनाकाल संवत् 1282 दिया गया है'नयनवसुसूरि (1282) वर्षे निष्पन्नायाः प्रमाणमेतस्याः । अजनि समस्रचतुष्टयमनुष्टुभामुपरि पण्चशती ।' इस इलोक से ग्रन्थ का प्रमाण 4500 श्लोक ज्ञात होता है। 12. वही, प्रस्तावना, पृ. 16 । 13. वही, 1118.20 14. अलङ्कारचिन्तामणि की प्रस्तावना, प. 33-341 २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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