Book Title: Jain 1963 Book 61 Bhagwan Mahavir Janma Kalyanak Ank
Author(s): Gulabchand Devchand Sheth
Publisher: Jain Office Bhavnagar

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Page 41
________________ प्रथम स्वाध्याय कर उपयोग का कायोत्सर्ग करते हैं, यह आगमोक्त नहीं है। (९) बाल, वृद्ध, ग्लान, तपस्वी आदि को छोडकर सामान्य रूप से सर्व साधुओं को दिन में एकबार भोजन करने का शास्त्रादेश है, परन्तु आजकल इस नियम को पालने वाला शायद ही कोई भाग्यशाली दृष्टिगोचर होता है, अधिकांश को तो भोजन के लिये दो और तीन टाइम भी कम प्रतीत है । (१०) पूर्व काल में प्रत्येक साधु अपने पास प्रतिदिन उपयोग में लेने के वस्त्र रखता था, मात्र आचार्य अपनी निश्रा में अधिक उपकरण रखते और गच्छ के कार्य में उनका उपयोग कर थे, तब आज सामान्य साधु भी कपडों की गठरी और पेटियां अपने अधिकार में रखते है और स्वेच्छानुसार उनका उपयोग करते हैं, यह सब अनागमिक प्रवृत्ति है । (११) पूर्व काल में वर्षाऋतु लगने के पहले साधु अपनी उपधिका काप काढते थे और जल न मिलने की हालत में पात्रानियोग तो अवश्य धोते, आज वर्ष में नहीं किन्तु मास में अनेक बार वस्त्र धोते हैं यह आगम और आचरण दोनों से विरुद्ध हैं । (१२) शास्त्र में आहार १, पानी २, स्तुतिवचन ३, वस्त्रधावन ४ और ५ हाथपग साफ करने की छूट आचार्य को होती थी, जो आचार्य नहीं होता उसे उपर्युक्त अतिशेष भागने की छूट नहीं होती थी, आज उक्त अतिशेषों का उपजीवन कौन नहीं करता ? (१३) साधु को नवकल्प और साध्वी का पंचकल्पविहार करने की शास्त्र में आज्ञा है और सयम की शुद्धि के लिये उक्त शास्त्राज्ञा का पालन करना चाहिये, परन्तु आज नवकल्प या 'चकल्प का नियम कोई नहीं पालता, जिनकी जैसी इच्छा होती है वे उसी प्रकार चलते हैं । (१४) साधुओं को निष्कारण भ्रमण करने से प्रायश्चित्त लगता है ऐसा शास्त्रादेश है तीर्थ - यात्रा निमित्तक भ्रमण को मी निष्कारण भ्रमण में माना है, परन्तु आजकल साधु साध्वियां तीर्थ - यात्रा के निमित्त सैंकडों कोशों का भ्रमण करते हैं, साथ में सहायक भी रखते हैं और अपवादों का सेवन करते हैं, यह सब आगम और आचरणाओं से विरुद्ध है । (१५) शास्त्र में स्त्री पुरुष दोनों के लिए आठ वर्ष के ऊपर और ६० वर्ष के भीतर दीक्षा देने विधान है, फिर भी तपागच्छ के आचार्यश्री विजयदेवसूरिजी महाराज ने अपने मर्यादा ट्रक की ३३ वीं कलम में ३५ वर्ष से कम ऊमरवाली श्रात्रिका को दीक्षा न देने का आदेश दिया था, जो देशकाल के अनुसार लाभदायी सिद्ध हुआ है और जिनजिन गच्छ के आचार्यों ने अपने गच्छ में ऐसा नियम नहीं बांधा उनके गच्छों में उलटा परिणाम आया, जिनको यह परिणाम देखना हो वे कानेर जाकर वहां की यतिनियों को देखें । सच कहा अपने इतिहास में अनागमिक आचरणाओं का इतिहास बहुत विस्तृत है, तो अपना आचारमार्ग, उपदेश पद्धति तथा साधु श्रावक का धर्ममार्ग आगमिकी मिटकर आच एणामय बनगया है और जैन मिटकर पौराणिक बन गया है, जैन गच्छों और सम्प्रदायों के बीच प्रति देन जो अन्तर बढता जाता है इसका वास्तविक कारण भी अनागमिकता ही है । पर्व तिथि के सम्बन्ध में सिद्धान्त की बातें करने वाले आचार्यों और उनके एज शास्त्राज्ञाविरुद्ध आचरणाओं पर विचार करना चाहिए, यदि वे ऐसा करेंगे तो उन्हें खरा मान मिल सकेगा । तथास्तु | जैन उपाश्रय, जालोर, (राजस्थान ) चैत्र वदि ८ ( गुजराती फाल्गुन वदि ८ ) १८२ ] શ્રી ખાવીર જન્મ કયાથુકિ

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