Book Title: JAINA Convention 2005 07 JCNC
Author(s): Federation of JAINA
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 201
________________ ܀܀ महत्वपूर्ण कार्य किया। वृक्षों का काटना, जमीन का अनावश्यक खनन, जल का दुरुपयोग, अग्नि अर्थात ऊर्जा मनमाना प्रयोग एवं वायु को दूषित करना यह सब पर्यावरण को असंतुलित करते हैं। इनके कारण पृथ्वी का संतुलन बिगड़ता है। इसी से भूस्खलन, बाढ़, भूकम्प या सुनामी जैसे प्रकोप को झेलना पड़ता है। जंगलों की कटाई, पशुओं का वध हमारे पर्यावरण को असंतुलित कर रहे हैं। धरती की छाती को चीर कर पेट्रो तेल तो निकाला पर उससे जो पर्यावरण दूषित हुआ वह कितना खतरनाक हो रहा है। हमने ऊर्जा के संगठित रूप का, अनंत शक्ति का संग्रह किया पर उसका उपयोग जन उत्कर्ष के स्थान पर बँध बना कर मानव और जीवसृष्टि का संहार ही किया । इन सभी तथ्यों के परिपेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि जैन धर्म का यह पंचास्तिकाय के प्रति अभिगम पूर्ण वैज्ञानिक एवं संसार के रक्षण में सहायक है। ܀܀܀܀܀܀ जब जैन धर्म क्ष तत्वों की चर्चा करता है तब यह विश्व के प्रत्येक पदार्थ को उसमें स्थान देता है। उसका विस्तार पूरे आकाश और काल तक फैला होता है। यदि हम जैन धर्म के सिद्धांतों के विषय में चर्चा करें तो स्पष्ट होता है कि उसका पूरा आधार मनोविज्ञान पर है। बात भी सच है क्योंकि जीवन का समस्त व्यापार और व्यवहार मन के कारण ही इन्द्रियों द्वारा संचालित होता है। आज जिस तथ्य को बड़े-बड़े मनोवैज्ञानिक स्वीकार कर रहे हैं उसे जैन दर्शन ने लाखों वर्ष पूर्व सिद्ध किया था । Jain Education International 2010_03 JA LINA 11 का यदि हम ऋध व्रतों की चर्चा करें तो यह पूर्ण मानवता के विकास का साधन है। हम अहिंसक बनें, सत्य वक्ता हों, हमारे अन्दर परस्वहरण की भावना न हों, हम सदाचारी - शीलव्रतधारी बनें और अपने स्वार्थ के लिए परिग्रह का परिमाण करें। ये हमारे महाव्रत ही हमें वास्तविक रूप से मानव बनाते हैं । यदि गहराई से सोचें तो परिग्रह ही समस्त पापों की जड़ है। सारे पाप इस धन की प्रेरणा से ही होते हैं। परस्पर व्यक्ति व्यक्ति के बीच आर्थिक असमानता नहीं बढ़े अतः जैन दर्शन परिमाण व्रत के द्वारा संयम का पाठ पढ़ा कर सबकी समानता " जीओ और जीने दो सिद्धांत जैन धर्म का प्राण है। जहाँ अन्य धर्मो हिंसादी को भी धर्म का अंग का उपदेश देता है। जब व्यक्ति लोभ से ऊपर उठता है, आकाक्षाओं पर लगाम लगा लेता है तब उसे न झूठ बोलना माना गया, वहाँ पड़ता है,न चोरी करनी पड़ती है । उसमें आत्मसंयम ही जागृत होता है। इन्हीं भावों को पूर्ण मनोवैज्ञानिक ढंग से जैन धर्म लेश्याओं के माध्यम से व्यक्त करता है। व्यक्ति के अच्छे या बरे मनोभाव उसके चेहरे पर झलकते हैं और वैसा ही वह कृत्य करता है। यह जैन धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति है । जैन धर्म नें ब्दन और मन को ऊपर हमने कर्मज्ञान पर कुछ प्रकाश डाला, यहाँ थोड़ा स्पष्ट करना जरूरी है। अन्य धर्मों में जहाँ भाग्यवाद का दुखाना भी हिंसा मान कर सबके प्रति करुणा का अभिगम प्रदान किया। आश्रय लिया गया है। भगवान ही सभी कृत्यों का लेखा-जोखा करने वाला हैं - वहाँ जैन दर्शन इस अंधी या गुमनाम बात को नहीं मानता। वास्तव में भाग्य अंधेरे में लाठी देखने का कार्य है जबकि कर्मज्ञान कर्तव्य का बोधक एवं स्वयं निर्णय करने का माध्यम है। प्रत्येक व्यक्ति का सुख - दुःख उसके वाम्पिन या अतीत में किए गये कर्मों का ही फल है। ये कर्म ही उसकी पतन या उन्नत अवस्था के कारण हैं। यहाँ आप गुरुत्वाकर्षण के नियम से यह जान सकते हैं कि अधिक बलवान वस्तु कमजोर को अपनी ओर खींचती है या समान शक्तिशाली वस्तुएँ एक दूसरे को स्थिर रख सकती हैं। आप जब जैन दर्शन के कर्म बन्धन की चर्चा करते हैं तब यही सिद्धांत कार्य करता है। यदि हमारे मनोभाव गलत-गंदे हैं तो अशुभ कार्य आकर्षित होते हैं और यदि दृढ़ हैं तो वे हो सकते हैं यदि दृढ़तर हैं तो शुभकार्यों का आस्रव होता है और वैसा ही परिणाम बनता है, हमारी क्रियायें होती हैं। ऐसा ही गुणस्थानों के परि प्रेक्य में भी देखिए - जीव उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए 11वें गुण-स्थान तक प्रगति करता है । वहाँ से यदि संसार के गुरुत्वाकर्षण से अधिक दृढ़ बनता है तो 12वें गुणस्थान में छलांग लगाता है ओर 13-14 गुणस्थान में प्रगति कर मुक्ति को पाता है । यदि उस समय संसार का गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाए तो वह साधना से च्युत होकर बिल्कुल नीचे भी गिर सकता है। इसे आप यों भी रख सकते हैं जैसे कि वर्तमान रोकेट छोड़े जाते हैं यदि वे पृथ्वी के For Private Personal Use Only 2005 Extending Jain Heritage in Western Environment 195 www.jainelibrary.org

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