Book Title: Islam Dharm me Karm ka Swarup
Author(s): Nizamuddin
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 6
________________ २१४ ] [ कर्म सिद्धान्त जहाँ तक धार्मिक या आध्यात्मिक कर्मों का सम्बन्ध है उन्हें 'हक्कुल्लाह ' कहा जाता है । रोज़ा, नमाज़ आदि इन्हीं में सम्मिलित हैं । इस्लाम धर्म के अनुयायियों पर यह फ़र्ज है कि (१) वे दिन में पाँच समय नमाज़ अदा करें, (२) साल में एक महीने तक ( रमज़ान के महीने में ही) रोज़ा रखें, (३) अर्थ - सम्पन्न हों तो जीवन में एक बार अवश्य 'हज' करें, (४) अपनी वार्षिक आय का २३ प्रतिशत दान करें। इन आवश्यक कर्मों के द्वारा आध्यात्मिक उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाती है । ये इस्लाम के चार प्रमुख कर्म-स्तम्भ हैं । 1 खुदा हमारी नमाज़ का भूखा नहीं, नमाज़ के द्वारा मनुष्य के जीवन में, व्यवहार में परिवर्तन होना आवश्यक है । नमाज़ द्वारा निम्न बातें जीवन में आनी चाहिए - ( १ ) इसके द्वारा अल्लाह के अस्तित्व और उसके गुणों के विषय में मनुष्य की आस्था दृढ़ होती है । आस्था प्राणों में घुलमिल जाती है, आत्मा का एक अंग बन जाती है । (२) नमाज़ ईमान को जीवित, ताजा रखती है । (३) इसके द्वारा मनुष्य की महानता, उच्चाचरण, श्रेष्ठता, सदाचार का विकास, सौंदर्य की तथा प्रकृति की आशा- उमंगों को पूरा करने में मनुष्य को सहायता करती है । ( ४ ) नमाज़ हृदय को पवित्र करती है, बुद्धि का विकास करती है, अन्तरात्मा को सचेत तथा जीवित रखती है, आत्मा को शान्ति प्राप्त होती है । (५) नमाज़ के द्वारा मनुष्य की अच्छाइयाँ प्रकट होती हैं और अशुभ, अपवित्र बातें समाप्त हो जाती हैं । रोज़ा मनुष्य को अल्लाह से प्रेम करना सिखाता है क्योंकि रोज़ा केवल अल्लाह की खुशनूदी - - प्रसन्नता के लिए रखा जाता है । इसके द्वारा अल्लाह की सन्निकटता का अनुभव होता है । यह मनुष्य की आत्मा को पवित्रता प्रदान करता है, उसे संतुलित जीवन व्यतीत करने का पाठ सिखाता है, सब्र-सन्तोष तथा निःस्वार्थता का भाव उत्पन्न करता है । इच्छाओं का, इन्द्रियों का दमन करना, उन्हें नियंत्रित करना आता है। भूख-प्यास की अनुभूति से सहानुभूति, दया, करुणा के भाव मनुष्य में उत्पन्न होते हैं । इसके द्वारा मनुष्य अनुशासनमय जीवन व्यतीत करता है, सामाजिकता की भावना उत्पन्न होती है । 'जकात' इस्लाम का प्रमुख स्तम्भ है । इस शब्द का भाव तो 'पावनता' है, लेकिन व्यवहार में वार्षिक दान - - चाहे रुपयों-पैसों के रूप में हो, चाहे वस्तुओं के—पदार्थों के रूप में हो, ग़रीबों को देना है । लेकिन इसमें दानशीलता के साथ खुदा-प्रेम, आध्यात्मिक उद्देश्य, नैतिक भावना भी शाकिल है । यह स्वेच्छा से दिया जाता है, कोई सरकारी दबाव नहीं जैसे आयकर में है । मानव-प्रेम की यह एक सच्ची अभिव्यक्ति है । वार्षिक प्राय का कम से कम ढाई प्रतिशत दान देना, खैरात करना अनिवार्य है । ज़कात हक़दार को देनी चाहिए - जिसके पास अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कुछ भी न हो । अनाथ, विकलांग Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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