Book Title: Int Jain Sangh NJ 2000 04 Mahavir Jayanti
Author(s): Int Jain Sangh NJ
Publisher: USA International Jain Sangh IJS

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Page 30
________________ रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करूं। बने जहां तक इस जीवन में, औरों का उपकार करूं।। ८ ।। ___मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवों से नित्य रहे। । दीन दुःखी जीवों पर मेरे, उर से करुणा स्त्रोत बहे ।। ६ ।। दुर्जन कूर कुमार्ग रतों पर, क्षोभ नहीं मुझ को आवे । साम्य भाव रक्खू मैं उन पर, ऐसी परिणाति हो जावे ।। १० ।। गुणी जनों को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे । बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन सुख पावे ।। ११ ।। होऊ नहीं कृतघ्न कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे । गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे ।। १२ ।। कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। लाखें वर्षों तक जीऊँ, या मृत्यु आज ही आ जावे ।। १३ ।। __ अथवा कोई कैसा भी भय, या लालच देने आवे। तो भी न्याय मार्ग से मेरा, कभी न पग डिगने पावे ।। १४ ।। होकर सुख में मग्न न फूलै, दुःख में कभी न घबरावै । पर्वत नदी श्मशान भयानक, अटवी से नहीं भय खावै ।। १५ ।। 18 Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal Use Only For Private & Pet www.jainelibrary.org

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