Book Title: In Search of the Original Ardhamagadhi English Translation
Author(s): K R Chandra, N M Kansara, Nagin J Shah, Ramniklal M Shah
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 134
________________ In Search of the Original Ardhamāgadhi K.R. Chandra के पाठों का निर्धारण करती है । पुस्तक के प्रारम्भ में पं.दलसुख मालवणिया एवं प्रो.एच. सी. भायाणी के विचार भी प्रकाशित हैं । अब प्रश्न यह है कि डॉ. चन्द्र के द्वारा निर्धारित अर्धमागधी पाठ जैनाचार्यों, उपाध्यायों, श्रमण- श्रमणियों एवं विद्वानों द्वारा मान्य होते हैं या नहीं ? क्योंकि आगम के प्रचलित पाठों में परिवर्तन आगम-परम्परा में आदरणीय नहीं है। किन्तु आगम का पाठ जब एक न हो, हर संस्करण में भिन्नता प्राप्त होती हो तो फिर उस भिन्न पाठ को आगम का प्राचीन मूल पाठ कैसे माना जा सकता है ? भगवान् अर्धमागधी में प्रवचन कर गए यह सर्वमान्य है तथा गणधरों ने भी उसे आगम रूप में अर्धमागधी में ही ग्रथित किया हैं । फिर उन आगमों में भाषा की एकरूपता क्यों नहीं है ? उनमें भाषागत भेद क्यों पाया जाता है ? भाषागत भेद के कारण उस शब्द का अर्थ भी सुरक्षित नहीं रहा है। अतः आगम का भाषागत एक रूप होना आवश्यक है । डॉ. चन्द्र का इस दिशा में प्रयास सराहनीय है ।.डॉ. चन्द्र ने यद्यपि पूर्ण शोध के साथ सम्यक् पाठ-निर्धारण का प्रयास किया है, तथापि इसे अन्तिम नहीं कहा जा सकता। कोई श्रद्धालु या विद्वान् इस दिशा में अपना मतभेद प्रकट कर सके तो इसके सही पाठ-निर्धारण में आगे भी सहायता मिलेगी। डॉ. चन्द्र ने अर्धमागधी का पाठ निर्धारित करते समयं प्राचीन पाठ को उपयुक्त माना है, किन्तु प्राचीनता का आधार क्या हो, इसके लिए उन्होंने कुछ नियम भी अपनाये हैं, यथा- (१) प्रारम्भिक मूल दन्त्य नकार को मूर्धन्य णकार में नहीं बदला है। (२) ज्ञ = न रखा गया है । (३) न्य, न = न अपनाया है। (४) व्यजंनों के साथ संयुक्त रूप में प्रयुक्त अनुनासिक व्यंजनों को यथावत् रखा गया है। (५) मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजन के लोप और मध्यवर्ती महाप्राण के स्थान पर हकार से सामान्यतः दूर रहा गया है । (६) 'यथा' और 'तथा' के लिए 'अधा' और 'तधा' को प्राथमिकता दी गई है । (७) पुल्लिंग प्रथमा एकवचन में 'ए',नपुंसक लिंग प्रथमा बहुवचन में 'नि', तृतीया एकवचन में 'एन' और 'ता', पंचमी एकवचन में 'तो', तृतीया बहुवचन में 'हि' और सप्तमी बहुवचन में 'सु' प्रत्ययों को प्राथमिकता दी गई है । 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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