Book Title: Hindi Patrakarita Kal aur Aaj Author(s): Vasundhara Mishr Publisher: Z_Ashtdashi_012049.pdf View full book textPage 2
________________ 'उचितवक्ता' में छपे मन्तव्य से जानी जा सकती है। ७ अगस्त १८८० ई० को 'हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः' के साथ 'उचितवक्ता' का प्रकाशन हुआ । १२ मई १८८३ के अंक में संपादकों से कहा गया कि "देशीय संपादको । सावधान!! कहीं जेल का नाम सुनकर 'किं कर्तव्यविमूढ़ मत हो जाना, यदि धर्म की रक्षा करते हुए गवर्नमेण्ट को सत्परामर्श देते हुए जेल जाना पड़े तो क्या चिन्ता है इसमें मानहानि नहीं होती। हाकिमों के जिन अन्यायपूर्ण आचरणों से गवर्नमेण्ट पर सर्वसाधारण की अश्रद्धा हो सकती है, उनका यथार्थ प्रतिवाद करने में जेल तो क्या दीपांतरित भी होना पड़े तो क्या बड़ी बात है ? क्या इस सामान्य विभीषिका से हम लोग अपना कर्तव्य छोड़ बैठे ?" यह भारतीय पत्रकारिता के प्रारंभिक दौर की निष्ठा को इंगित करती है कि उस जमाने की पत्रकारिता आदर्शों और जीवन मूल्यों पर आधारिता रही है। हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास विश्व पत्रकारिता में भी स्वाभिमानपरक, आदर्शों और मूल्यों पर आधारित रहा है, आम लोगों को शिक्षित एवं जागृत करने, राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा राष्ट्रीय निर्माण के हर मोड में पत्रकारिता राष्ट्रीय जीवन की पथ प्रदर्शक रही है। उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूँ ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से अवगत हो सकें जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पाई जा सके और अपनी उचित मांगे पूरी कराई जा सकें। कमोवेश पत्रकारिता के इसी आदर्श की आज भी जरुरत है। हालांकि वैश्वीकरण और आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा के युग में पत्रकारिता पर भी बाजारवाद हावी होने लगा है। | पत्रकार और कई समाचार पत्र सत्ता के पीट्ठू बनकर काम कर रहे हैं। स्वच्छ पत्रकारिता के साथ-साथ पीत पत्रकारिता भी घुस गई है। हिन्दी पत्रकारिता की जन्मस्थली कोलकाता में भी पत्रकारिता प्रलोभन का शिकार है। पत्रकार अर्थसत्ता के सामने हाथ फैलाए हुए हैं। कई समाचार पत्रों की स्थिति भी कमोवेश ऐसी है जो पत्रकार भूखे रहकर, जेल जाकर तथा दण्डित होकर भी अपने पत्रकारिता धर्म की पालना करना गर्व समझते थे, अब वही पत्रकार बिना मूल्यों की पत्रकारिता करते हैं और कोड़ियों में उनको खरीदा जा सकता है। हिन्दी पत्रकारिता के उद्गम से विकास की अब तक की यात्रा में यह विसंगति राष्ट्रीय पत्रकारिता में कलंक के रूप में जहां-तहां दिखाई देती है। पूरे देश पर इसका असर व्याप्त है। प्रारंभिक काल की हिन्दी पत्रकारिता ने राष्ट्रीय जीवन में चेतना के बीज बोने, राष्ट्रीय निष्ठा जगाने, राष्ट्रीय क्रांति का Jain Education International स्वरूप निर्धारित करने, स्वतंत्रता का स्वर मुखरित करने, जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए। स्वातन्त्रोत्तर काल (१९४८-१९७४) के बाद हिन्दी पत्रकारिता नवयुग में प्रवेश कर गई। इसके बाद २१वीं सदी की पत्रकारिता व्यापक और समृद्ध रूप में सामने आई है। आजादी के बाद देश कृषि, औद्योगिक और तकनीकी विकास, सुरक्षा समेत विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर हुआ । कृषि क्रान्ति ने अन्न-वस्त्र की समस्या से निजात दिलाई। पत्रकारिता हर क्षेत्र में राष्ट्रीय विकास के कर्णधारों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साथ-साथ रही। अब हिन्दी पत्रकारिता राष्ट्रीय समस्याओं और जीवन मूल्यों में आई गिरावट से लोहा ले रही है। देश में भ्रष्टाचार, आतंकवाद, मूल्यवृद्धि, मुनाफाखोरी, विदेशी घुसपैठ और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के षडयंत्र के खिलाफ हिन्दी पत्रकारिता सजगता से काम कर रही है। भारत को विश्व शक्ति के रूप में उभारने तथा राष्ट्रीय समग्रता को विकसित करने में हिन्दी पत्रकारिता की भूमिका बढ़ी है। आज देश में अखबारों की आवाज उतनी ही बुलन्द है जितनी संसद में किए गए निर्णयों का असर होता है। हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में (१८८५-१९१९) तक पत्रकारिता चेतना का स्वर्णिम काल रहा । इस काल में हिन्दी पत्रों ने ऐसा सिंहनाद किया कि राष्ट्रीय भक्तों का ज्वार आ गया। हिन्दोस्थान सर्वहितैषी, हिन्दी बंगवासी, साहित्य सुधानिधि, स्वराज्य, नृसिंह प्रभा, प्रभृति समाचार पत्रों ने ऐसा जागरण मंत्र फूंका कि अंग्रेजी शासकों की चूलें हिल गई । १८८५ में हिन्दोस्थान का प्रकाशक कालाकाँकर के राजा रामपाल सिंह ने किया। पंडित मदन मोहन मालवीय, अमृतलाल चक्रवर्ती, प्रताप नारायण मिश्र, शशिभूषण चटर्जी, गोपाल राम गहमरी, बालमुकुन्द गुप्त जैसे दिग्गज हिन्दी समाचार पत्रों के संपादक थे। इन समाचार पत्रों ने देशवासियों को अपने सांस्कृतिक मूल्यों और स्वदेश के प्रति जागरूक बनाया। पूना से प्रकाशित 'हिन्द केसरी' इलाहाबाद से 'स्वराज्य' ने स्वतंत्रता आन्दोलन को गति दी। इन समाचार पत्र के सम्पादकों को अंग्रेजी शासकों का कोपभाजन बनना पड़ा। वहीं हिन्दी पत्र स्वतंत्रता आन्दोलन के अगुवा सिद्ध हुए । राष्ट्रीय चेतना के अभ्युदय से आजादी का मार्ग प्रशस्त हुआ। वहीं हिन्दी पत्रकारिता स्वतंत्रता आन्दोलन की स्वर्ण गाथा बन गई। हिन्दी के समर्पित पत्रकारों का जीवनइतिहास बताता है कि उनकी लेखनी से अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। इसके बाद की पत्रकारिता व्यक्ति, समाज, राष्ट्र के नवनिर्माण के प्रति संकल्पित हो गई। १९४८ से १९७५ तक की स्वातंत्रोत्तर पत्रकारिता ने राष्ट्रीय निर्माण का कार्य किया। आज ● अष्टदशी / 175 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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