Book Title: Hindi Jain Kaviyo ki Chand Yojna Author(s): Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf View full book textPage 1
________________ ० Jain Education International ६१० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड हिन्दी जैन कवियों की छन्द-योजना * डा० महेन्द्र सागर प्रबंडिया, विद्यावारिधि एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट. मानद संचालक : जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ *********** भारतीय विचारधारा के उन्नयन में अन्य अनेक आचार्यों की भाँति जैनाचार्यों और मुनियों का जो सक्रिय सहयोग रहा है उससे आज का सामान्य स्वाध्यायी प्रायः परिचित नहीं है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा कन्नड़, तमिल तेलगु, मराठी, गुजराती और राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं में विरचित साहित्य की भांति जैन विद्वानों का हिन्दीवाङ्मय की अभिवृद्धि में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, राजनीति, कोश, नाटक, चम्पू, काव्य, सुभाषित, छन्द, अलंकार आदि नाना रूपों में जैन लेखकों की मूल्यवान रचनाएँ आज वस्तुत: अनुसंधान का विषय बनी हुई हैं। उपर्युक्त विषयों पर जीवन के नाना संदर्भों पर आधारित जैनाचार्यों की मौलिक चिन्तनप्रसूत रचनायें वस्तुतः भारतीय साहित्य की थाती के रूप में आरम्भ से ही विख्यात रही हैं। आज भी जैन सरस्वती भण्डारों में जो विपुल जैन - जैनेतर साहित्य लुप्त तथा अप्रकाशित भरा पड़ा है, उसका अवलोकन कर वस्तुतः भारी आश्चर्य होता है । अभिव्यक्ति एक शक्ति होती है। उसके मूल में भाव - भाषा तथा अभिव्यंजना शिल्प का समन्वय महत्वपूर्ण है । भाषा की दृष्टि से प्राचीनतम आर्यवंश की भाषाओं की साक्षात् क्रमिक परम्परा हिन्दी भाषा को प्राप्त हुई है । संहिता, ब्राह्मण और सूत्रकालीन संस्कृत भाषा का उत्तराधिकार शताब्दियों से विकसित होता हुआ हिन्दी को प्राप्त हुआ है । भगवान महावीर के जनकल्याणकारी प्रवचनों को सुरक्षित रखने वाली अर्द्धमागधी भाषा एवं कालान्तर में विकसित शौरसेनी, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा की विकासधारा में अपने समृद्ध साहित्य कोश को लिये हुए वर्तमान हिन्दी भाषा और साहित्य के कलेवर में समवेत हुई है । अपभ्रंश से लेकर उन्नीसवीं शती तक जैनधर्मानुयायी विद्वानों ने हिन्दी में जिस साहित्य की संरचना की, उसका हिन्दी-साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है । पुरानी हिन्दी के विकास में जैनाचार्यों तथा बौद्ध-सिद्धों का बहुत बड़ा हाथ रहा है । शब्द-शास्त्र और साहित्यिक शैलियों का बहुत बड़ा योग जैन साहित्यकारों से हिन्दी को प्राप्त हुआ है । यहाँ हम हिन्दी जैन कवियों की छन्द-योजना पर संक्षेप में चर्चा करेंगे । भावाभिव्यक्ति कोई न कोई रूप ग्रहण करती है ।' रूप किसी वस्तु के आकार पर निर्भर करता है । बिना आकार या रूप ग्रहण किये कोई भी अभिव्यक्ति न तो हो सकती है और न अभिव्यक्ति का नाम ही पा सकती है । काव्य भी तभी कहलाता है जब वह अभिव्यक्त हो और कोई रूप ग्रहण करे। वे राग और अनुभूतियाँ, जो काव्य कही जा सकती हैं जब अपनी अभिव्यक्ति चाहती हैं, तब वे वाणी का आश्रय लेती है । वाणी की मूलतः तीन स्थितियाँ मानी गई हैं जिन्हें परा, पश्यन्ति और बैखरी नाम दिये जाते हैं । ये तीनों वस्तुतः अभिव्यक्ति की तीन प्रक्रियाएँ हैं । अनुभूति अथवा भाव पहले 'परा' का आश्रय ग्रहण करता है। परावाणी की स्थिति में अनुभूति या भाव या राग अभिव्यक्त होने के लिये तत्पर होता है, उसकी इस तत्परता से वाणी अवयव उसके अनुकूल होने के लिये अपने आप को ढालते हैं । वाणी अवयवों में अनुभूति, भाव, राग, विचार की अभिव्यक्ति के लिये अनुकूल आन्दोलन होने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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