Book Title: Hindi Jain Kaviyo ki Chand Yojna
Author(s): 
Publisher: Z_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ६१० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड हिन्दी जैन कवियों की छन्द-योजना * डा० महेन्द्र सागर प्रबंडिया, विद्यावारिधि एम. ए., पीएच. डी., डी. लिट. मानद संचालक : जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ *********** भारतीय विचारधारा के उन्नयन में अन्य अनेक आचार्यों की भाँति जैनाचार्यों और मुनियों का जो सक्रिय सहयोग रहा है उससे आज का सामान्य स्वाध्यायी प्रायः परिचित नहीं है । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा कन्नड़, तमिल तेलगु, मराठी, गुजराती और राजस्थानी आदि अनेक भाषाओं में विरचित साहित्य की भांति जैन विद्वानों का हिन्दीवाङ्मय की अभिवृद्धि में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है। सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, राजनीति, कोश, नाटक, चम्पू, काव्य, सुभाषित, छन्द, अलंकार आदि नाना रूपों में जैन लेखकों की मूल्यवान रचनाएँ आज वस्तुत: अनुसंधान का विषय बनी हुई हैं। उपर्युक्त विषयों पर जीवन के नाना संदर्भों पर आधारित जैनाचार्यों की मौलिक चिन्तनप्रसूत रचनायें वस्तुतः भारतीय साहित्य की थाती के रूप में आरम्भ से ही विख्यात रही हैं। आज भी जैन सरस्वती भण्डारों में जो विपुल जैन - जैनेतर साहित्य लुप्त तथा अप्रकाशित भरा पड़ा है, उसका अवलोकन कर वस्तुतः भारी आश्चर्य होता है । अभिव्यक्ति एक शक्ति होती है। उसके मूल में भाव - भाषा तथा अभिव्यंजना शिल्प का समन्वय महत्वपूर्ण है । भाषा की दृष्टि से प्राचीनतम आर्यवंश की भाषाओं की साक्षात् क्रमिक परम्परा हिन्दी भाषा को प्राप्त हुई है । संहिता, ब्राह्मण और सूत्रकालीन संस्कृत भाषा का उत्तराधिकार शताब्दियों से विकसित होता हुआ हिन्दी को प्राप्त हुआ है । भगवान महावीर के जनकल्याणकारी प्रवचनों को सुरक्षित रखने वाली अर्द्धमागधी भाषा एवं कालान्तर में विकसित शौरसेनी, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा की विकासधारा में अपने समृद्ध साहित्य कोश को लिये हुए वर्तमान हिन्दी भाषा और साहित्य के कलेवर में समवेत हुई है । अपभ्रंश से लेकर उन्नीसवीं शती तक जैनधर्मानुयायी विद्वानों ने हिन्दी में जिस साहित्य की संरचना की, उसका हिन्दी-साहित्य के विकास में महत्वपूर्ण स्थान है । पुरानी हिन्दी के विकास में जैनाचार्यों तथा बौद्ध-सिद्धों का बहुत बड़ा हाथ रहा है । शब्द-शास्त्र और साहित्यिक शैलियों का बहुत बड़ा योग जैन साहित्यकारों से हिन्दी को प्राप्त हुआ है । यहाँ हम हिन्दी जैन कवियों की छन्द-योजना पर संक्षेप में चर्चा करेंगे । भावाभिव्यक्ति कोई न कोई रूप ग्रहण करती है ।' रूप किसी वस्तु के आकार पर निर्भर करता है । बिना आकार या रूप ग्रहण किये कोई भी अभिव्यक्ति न तो हो सकती है और न अभिव्यक्ति का नाम ही पा सकती है । काव्य भी तभी कहलाता है जब वह अभिव्यक्त हो और कोई रूप ग्रहण करे। वे राग और अनुभूतियाँ, जो काव्य कही जा सकती हैं जब अपनी अभिव्यक्ति चाहती हैं, तब वे वाणी का आश्रय लेती है । वाणी की मूलतः तीन स्थितियाँ मानी गई हैं जिन्हें परा, पश्यन्ति और बैखरी नाम दिये जाते हैं । ये तीनों वस्तुतः अभिव्यक्ति की तीन प्रक्रियाएँ हैं । अनुभूति अथवा भाव पहले 'परा' का आश्रय ग्रहण करता है। परावाणी की स्थिति में अनुभूति या भाव या राग अभिव्यक्त होने के लिये तत्पर होता है, उसकी इस तत्परता से वाणी अवयव उसके अनुकूल होने के लिये अपने आप को ढालते हैं । वाणी अवयवों में अनुभूति, भाव, राग, विचार की अभिव्यक्ति के लिये अनुकूल आन्दोलन होने Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्बी जैन कवियों की छन्द-योजना ६११ लगता है। इन अवयवों में प्रस्तुत वह गति जब स्पन्दनयुक्त हो उठती है, यह स्पन्दनयुक्त स्थिति 'पश्यन्ति' है। यही स्पन्दन मुख से निकल कर कान से टकरा कर शब्द अथवा 'बैखरी' रूप ग्रहण कर लेते हैं। सामान्यतः ही देखा जाय तो विदित होगा कि एक अभिव्यक्त शब्द में एक साथ कई तत्त्व रहते हैं। उसमें एक तो अक्षर, वर्ण या शब्द की ध्वनि रहती है। शब्द का ठोस तत्त्व, यह किसी भी उच्चरित ध्वनि में अभिव्यक्त होने वाली अनुभूति का बीज तत्त्व होता है, इसी में अर्थ-शक्ति रहती है । इस मूल के साथ एक पुट रहता है रागतत्त्व का, प्रत्येक ध्वनि में राग या म्यूजीकल एलीमेन्ट विद्यमान है, क्योंकि वाणी केवल बिन्दु ही नहीं, नाद भी होती है। प्रत्येक उच्चरित अक्षर ध्वनि के साथ रागतत्त्व सहजरूपेण लिपटा रहता है या कुछ और ठीक-ठीक कहें तो भिदा रहता है। क जब क् होता है तब बिन्दु है क होने पर नाद या रागयुक्त या स्वर युक्त हो जाता है : यह सभी जानते हैं कि बिना स्वर से योग के व्यंजनों का उच्चारण हो ही नहीं सकता । ये स्वर ही प्रत्येक अक्षर में मात्रा का काम देते हैं। मात्रा बारहखड़ी की मात्रा का परिणाम है जो लघु-गुरु के स्थूल भावों द्वारा प्रकट की जाती है, यों भाषा-तत्त्वविद् बता सकते हैं कि लघु से पूर्व भी लघुतर-लघुतम की स्थिति होती है, लघु-गुरु के बीच में भी और कितनी ही मात्रायें हैं और गुरु के उपरान्त गुरुतर, गुरुतम और उससे प्लुत आदि की । वस्तुतः एक मात्रा या व्यंजन का उल्लेख एक ग्राम होता है और विविध उच्चारणकर्ताओं की अपनी स्थिति के अनुरूप वे स्थान को अभ्यासत: टिकने के लिये ग्रहण कर लेते हैं, वहीं उनके अक्षर या वर्ण का मात्रायुक्त उच्चारण माना जाता है । क ध्वनि का पूर्ण ग्राम क क क क क क मान लीजिये। अब इसमें हमने ३ को बोलने का अभ्यास डाल लिया है तो हम इस ३ को अपना क मानेंगे। इन छहों उच्चारणों में मात्राभेद अनिवार्य है। उसी से क मूल का ग्राम बनता है। इस मात्रा में राग-तत्त्व के कारण ही इतने उच्चारण बनते हैं। यही राग-बिन्दु या नाद-विशेष विस्तार पाकर मात्रा संयोगों से छन्द का रूप ग्रहण करता है। छन्द व्यवस्थित ध्वनि है । मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था एवं गणना जिस रूप में व्यवस्थित होती है उसे छन्द कहा जाता है तथा संगीत सम्बन्धी लय और गति वाली धारा प्रवाहित होती है। आचार्य विश्वनाथ द्वारा प्रतिपादित है कि छन्दोबद्ध पदं पद्य : अर्थात् छन्दोबद्ध पद को ही पद्य कहा जाता है। छन्द से काव्य में लयता, नियमितता तथा अर्थपूर्णता प्राय: अभिव्यंजित हुआ करती है। काव्य और छन्द का सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है । वे परस्पर में साथ-साथ हैं, उन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। छन्दयति आह्लादयति इति छन्दः अर्थात् जो मनुष्यों को प्रसन्न करता है या आनन्द देता है वह छन्द है। छन्द में व्याप्त लय और ताल के कारण काव्य में उत्पन्न मधुरता से उसमें प्राणिमात्र को आकर्षित तथा सम्मोहित करने की अमोघ शक्ति का उन्नयन होता है । काव्यशास्त्र के सुधी विचारक डा० भगीरथ मिश्र ने कहा है कि कविता की मुख्य विशेषता रमणीयता है, इस विशेषता की रक्षा का सहायक तत्त्व छन्द ही है जिसके अभाव में कविता को नीरस गद्य बनने में देर नहीं लगती अतः छन्द का कविता में इस दृष्टि से महत्व रहा है। छन्दों को प्रकार की दृष्टि से मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा१. मात्रिक २. वणिक मात्रिक छन्द मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति से उत्पन्न होते हैं, इसका कारण है कि मात्रिक छन्दों की मात्रा विषयक तथ्य का आधार मूलतः ताल है और ताल नृत्य के साथ प्रसूत तन्त्र व्यवस्था है जो गीत में टेक कहलाती है। हिन्दी का छन्दविज्ञान मूलतः संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के छन्दविज्ञान पर आधारित है। छंद का गण विभाजन जिसका सम्बन्ध वर्णवृत्तों से है । वर्णात्मक छन्दों का मूल आधार संस्कृत काव्यधारा है। इस प्रकार मात्रिक तथा वणिक छन्दों का व्यवहार काव्य में नैत्यिक है और नाना प्रसंगों पर आधृत विविध रसों का निरुपण विभिन्न छन्दों के माध्यम से समर्थ किन्तु रससिद्ध कवियों द्वारा सफलतापूर्वक होता रहा है। इस प्रकार यह सार संक्षेप में कहा जा सकता है कि छन्द अपनी नाद-प्रियता के लिए विख्यात है। भावाभिव्यक्ति को सरस तथा सफल बनाने के लिये भाषा का वैज्ञानिक-विधान-छन्द वस्तुत: नाद सौन्दर्य को उच्च, नम्र समतल, विस्तृत और सरस बनाने में समर्थ होता है । Art. . Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ६१२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड जैन कवियों की हिन्दी काव्य-कृतियों में वणिक और मात्रिक दोनों ही प्रकार के छन्दों का प्रयोग हुआ है। जैन कवियों की हिन्दी काव्य-कृतियों में जिन-जिन छन्दों का व्यवहार हुआ है, यहाँ उनका संक्षेप में उल्लेख करेंगे। पन्द्रहवी शती में रचित काव्यों में केवल मात्रिक छन्दों का व्यवहार परिलक्षित है । सामान्यतः वर्णवृत्तों का प्रयोग नहीं मिलता है । आवलि', चौपई, दोहा', वस्तुबन्ध", सोरठा", नामक मात्रिक छन्दों का सफलतापूर्वक व्यवहार हुआ है। सोलहवीं शती में रचित हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत छन्दों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । यथा १. मात्रिक २. वणिक मात्रिक छन्दो में कुडलिया'२, गीतिका, चौपाई", छप्पय", दोहा", वस्तुबन्ध", नामक छन्दों के दर्शन होते हैं । जहाँ तक वर्णवृत्तों के व्यवहार का प्रश्न है इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा", त्रिवल य, त्रोटक' छन्दों का सफल प्रयोग हुआ है। सत्रहवीं शती में विरचित हिन्दी जैन काव्यों में मात्रिक और वणिक छन्दों का व्यवहार द्रष्टव्य है। जहां तक मात्रिक छन्दों के प्रयोग का प्रश्न है उनमें अडिल्ल२२, कुण्डलिया२२, करखा, गीतिका२५, गीत२६, चौपाई२०, चौपई२८, छप्पय", दोहा, पद्मावती', पद्धरि२, वस्तुबन्ध, तथा सोरठा अधिक उल्लेखनीय हैं । विवेच्य काल में वर्णवृत्तों का प्रयोग भी बड़ी खूबी से हुआ है इनमें कवित्त, हरिगीतिका" तथा त्रोटक छन्दों के अभिदर्शन सहज में हो जाते हैं। १ जहाँ तक अठारहवीं शती में रचित काव्यों में व्यवहृत मात्रिक तथा वणिक छन्दों का प्रश्न है उनकी संख्या कम नहीं है । अडिल्ल, आर्या, आमीर", कुण्डलिया, करखा, गीत", धत्ता, चौपई, चौपाई", चन्द्रायण, छप्पय", जोगीरासा", दोहा", दुर्मिल५२, नाराच५३, पद्धरि, प्लवंगम", वेसरि, व्योमवती", सोरठा, तथा त्रिभंगी५९, नामक मात्रिक छन्दों का विभिन्न काव्यों में सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है । जहाँ तक वर्णवृत्तों का प्रश्न है जैन कवियों द्वारा द्रुतविलम्बित", भुजंगप्रयात", मनहरण २, कवित्त, सुन्दरी, हरिगीतिका", तथा त्रोटक नामक सात छन्दों के अभिदर्शन होते हैं। उन्नीसवीं शती में विरचित हिन्दी जैन काव्य-कृतियों में मात्रिक छन्दों के साथ ही साथ वर्णवृत्तों का सफलता पूर्वक प्रयोग हुआ है । मात्रिक छन्दों में अडिल्ल", गीतिका, गीत, गाथा", चौपई", चौपाई २, छप्पय", जोगीरासा, धत्ता, दोहा, पद्धरि", पद अवलिप्त-कपोल.", मोतीदास", गेला", सोरठा", तथा त्रिभंगी२, नामक छन्दों का प्रयोग जैन कवियों द्वारा सफलतापूर्वक हुआ है। इसी प्रकार विभिन्न काव्य रूपों में कवित्त , चामर", नाराच , भुजंगप्रयात", सुगीतिका", सुन्दरी", सखी प्राग्विणी", तथा हरिगीतिका" नामक विविध वर्णवृत्तों का सुन्दर प्रयोग परिलक्षित है। उपयुक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन कवियों की हिन्दी काव्य-कृतियों में हिन्दी के उन सभी छन्दों का प्रयोग हुआ है जिनके दर्शन हमें हिन्दी काव्य में मिलते है। इन कवियों की विशेषता यह रही है कि इन सभी छन्दों की प्रकृति तथा रूप को भली भाँति समझ कर उचित शब्दावलि के सहयोग से रसानुभूति को शब्दायित किया है। हिन्दी के अनेक कवियों की नाई यहां काव्य पाठ अथवा श्रवण करते समय छन्द आनन्दानुभूति में साधक का काम करते हैं, बाधक का नहीं। काव्य में आचार्यत्व प्रमाणित करने के लिये छन्दों का प्रयोग नहीं किया गया है । स्थायी संदेश को प्राणी मात्र तक पहुँचाने के लिये इन कवियों ने काव्य का सृजन किया । भाषा तथा छन्दों का सहज प्रयोग इनके काव्य में सरसता, सरलता तथा गजब की ध्वन्यात्मकता लयता का संचार करने में सर्वथा सक्षम है। विशेष बात यह है कि इन कवियों द्वारा व्यवहृत छन्द केवल सन्देशवाहक ही नहीं हैं अपितु वे प्रभावक भी प्रमाणित हुए हैं। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल१ हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, प्रथम संस्करण, डा० धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ ८४८ २ वही, पृष्ठ ८४८ ३ छन्द प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद भानु । ० ० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जन कवियों की छन्व-योजना ६१३ . 0 ४ सास पिंगल, रामचन्द्र शुक्ल सरस, पृष्ठ ५। ५ छन्द विज्ञान की व्यापकता, डा. हरिशंकर शर्मा, पृष्ठ २। ६ हिन्दी काव्यशास्त्र का इतिहास, डा० भगीरथ मिश्र, पृष्ठ ४१२ । ७ सीमन्धर स्वामी स्तवन, विनयप्रभ उपाध्याय । ८ प्रद्युम्न चरित्र, सधारु। ६ चतुर्विंशतिजिनस्तुति, उपाध्याय जयसागर । कथाकोश संग्रह, ब्र०जिनदास । प्रद्य म्न चरित्र-सधारु तथा यशोधर चरित्र, सधारु । १० प्रद्युम्नचरित्र, सधारु । नगरकोटतीर्थ चैत्य परिपाटी, उपाध्याय जयसागर । सीखामणि, सकलकीति । ११ नगरकोट तीर्थ चत्य परिपाटी, जयसागर । १२ ललितांग चरित्र, ईश्वरसूरि । १३ सन्तोषजयतिलक, बूचराज। १४ सिद्धान्त चौपई, लावण्यमय । मृगावती चौपई, विनयसमुद्र । १५ ललितांगचरित्र, ईश्वरसूरि । कृपणचरित, ठकुरसी। संतोषजयतिलक, बूचराज। १६ यशोधरचरित, ब्र० जिनदास । पंच सहेली गीत, छीतल, । चेतन पुद्गल, बूचराज, । मृगावती चौपई, विनयसमुद्र । १७ ललितांगचरित, ईश्वरसूरि । बलिभद्र चौपई, यशोधर । १८ ललितांगचरित्र, ईश्वरसूरि । १६ ललितांगचरित्र, ईश्वरसूरि । २० गुर्वावलि, सोमकीर्ति । २१ सन्तोषतिलक, बूचराज । २२ समयसार नाटक, बनारसीदास । २३ समयसार नाटक तथा सूक्ति मुक्तावलि, बनारसीदास । २४ सूक्ति मुक्तावलि, बनारसीदास । २५ बनारसीविलास, बनारदास । २६ सूक्ति मुक्तावलि, बनारसीदास । २७ जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, पृष्ठ २१०, डा. महेन्द्र सागर प्रचंडिया । २८ समयसार नाटक, अर्द्ध कथानक, बनारसीदास । सीता सुत, पं० भगवतीदास । २६ समयसार नाटक, सूक्ति मुक्तावलि, बनारसीदास । ३० परमार्थी दोहा शतक रूपचन्द्रकवि । समयसार नाटक तथा बनारसी विलास, बनारसीदास । मनराम विलास, मनराम मनःप्रशंसा, उदयराज जती । सुन्दर शृंगार, सुन्दरदास । श्रीपालचरित्र, परिमल्ल । आनन्दधन बहत्तरी, आनन्दघन । साम्यशतक, यशोविजय । ३१ सूक्ति मुक्तावलि, बनारसीदास । For Private Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O ६१४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठम खण्ड ३२ बनारसी विलास, बनारसीदास । ३३ सहसनाम बनारसीदास । ३४ समयसार नाटक तथा प्रश्नोत्तरमाला, बनारसीदास । ३५ सूक्तिसारावलि तथा समयसार नाटक, बनारसीदास । २६ सूक्तिमुक्तावलि, बनारसीदास ३७ नेमिनाथ बारहमासा, भट्टारक रत्नकीर्ति । ३८ भक्तामर स्तोत्र कथा, विनोदीलाल | ३६ जीवन्धर चरित्र, अध्यात्म बारहखड़ी, दौलतराम काशलीवाल । देवशास्त्रगुरु पूजा द्यानतराय । ४० द्रव्यसंग्रह, भगवतीदास । ४१ ब्रह्मविलास, भगवतीदास | ४२ भक्तामर चरित्र, विनोदीलाल, शत अष्टोत्तरी, भैया भगवतीदास । ४३ शत अष्टोत्तरी, चेतन कर्मचरित्र, भूधरदास । सिज्झय, भगवतीदास । ४४ जैन शतक, भूधरदास । देवशास्त्रगुरु पूजा, द्यानतराय । ४५ तीर्थंकर जयमाला, भैया भगवतीदास । शान्तिनाथ पूजा, बृन्दावनदास । महावीर पूजा, वही ४६ जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, पृष्ठ २४१, डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया | ४७ पार्श्वपुराण भूधरदास । जीवंधरस्वामीचरित्र, दौलतराम काशलीवाल । जिनजी की रसोई अजयराज पाटनी । चेतन कर्म चरित्र, भैया भगवतीदास, सोलह कारण पूजा, द्यानतराय । ४८ रागादि निर्णयाष्टक- भैय्या भगवतीदास; पुण्यपाप जगमूल पचीसी, भैया भगवतीदास । ४६ पांडवपुराण, बुलाकीदास; पार्श्वपुराण, भूधरदास । जीवन्धर स्वामी चरित्र, दौलतराम काशलीवाल । ५० क्रिया कोष, भूधरदास 1 । ५१ सोताचरित, रामचरित्र, उपदेशशतक, पांडेय हेमचन्द्र देवशास्त्रगुरु पूजा द्यानतराय महाबीर पूजा, बृन्दावनदास | ५२ शत अष्टोत्तरी, भैया भगवतीदास । ५३ अध्यात्म बारहखड़ी, दौलतराम काशलीवाल । फूलमाल पचीसी, विनोदी लाल । ५४ अध्यात्म बारहखड़ी, पं० दौलतराम काशलीवाल, चेतन कर्म चरित्र, भैया भगवतीदास देव शास्त्र गुरु पूजा, 1 द्यानतराय | ५५ शत अष्टोत्तरी, भैया भगवतीदास । ५६ जीवन्धर चरित्र, दौलतराम काशलीवाल, अध्यात्म बारहखड़ी, वही, पंचमेरु पूजा, द्यानतराय । ५७ बाइस परीषह - भूधरदास । *********@** ५८ भक्तामर चरित्र, विनोदीलाल, श्रीपाल चरित्र — दौलतराम । ५६ शान्तिनाथ जिनपूजा-वृन्दावनदास ६० श्री शान्तिनाथ जिनपूजा, बृन्दाबनदास । ६१ अध्यात्म बारहखड़ी तथा जीवन्धर चरित्र, दौलतराम काशलीवाल । पार्श्वनाथ स्तोत्र द्यानतराय जी । ६२ द्रव्य संग्रह, भैया भगवतीदास । ६३ अध्यात्म बारहखड़ी दौलतराम काशलीवाल ब्रह्म विलास, भगवतीदास, तथा पुण्य पचीसी, भगवतीदास । ६४ शान्तिनाथ जिनपूजा, बृन्दावनदास । ६५ महावीर जिनपूजा, वृन्दावनदास ६६ अध्यात्म बारहखड़ी, दौलतराम, महावीर जिनपूजा तथा चन्द्रप्रभु पूजा, बृन्दावनदास । ६७ श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावर जी; सम्मेदाचल पूजा, जवाहरलाल । ६८ सम्मेदाचल पूजा, जवाहरलाल । ६६ शीतलनाथ तथा अनन्तनाथ और पार्श्वनाथ जिन पूजा, मनरंगलालजी । ७० क्रिया कोश, दौलतराम; शीतलनाथ जिन पूजा, मनरंगलाल । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्बी जैन कवियों को छन्द-योजना 615 71 जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, पृष्ठ 245, डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया / 72 श्रीसम्मेदाचल पूजा, जवाहरलाल / छहढाला तथा दौलत विलास, दौलतराम / 73 सप्तर्षि पूजा मनरंग लाल जी वर्द्धमानपुराण, नवलशाह / 74 वर्द्धमानपुराण, नवलशाह; छहढाला, दौलतराम तथा श्री सम्मेदशिखर पूजा, जवाहरलाल / 75 गिरिनार सिद्ध क्षेत्र पूजा, रामचन्द्र। 76 बुधजन सतसई, बुधजन तथा दौलत विलास, दौलतरामजी / 77 छहढाला, दौलतराम, श्री सम्मेदशिखर पूजा, जवाहर लाल, श्री पार्श्वनाथ पूजा, बख्तावरजी / पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम जी / 78 श्री सम्मेदशिखर पूजा, जवाहरलाल / 76 वही, 80 छहढाला, दौलतराम जी, सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल जी। 81 शीतलनाथ पूजा, मनरंगलाल जी, श्री सम्मेद शिखर पूजा, जवाहरलाल जी, छहढाला, दौलतराम जी / 82 शीतलनाथ जिन पूजा, मनरंगलाल जी। 83 श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र / 84 श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा, बख्तावरमल जी। 85 भक्तामर स्तोत्र हिन्दी भाषानुवाद, हेमराज / 86 जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, पृष्ठ २५८-डा. महेन्द्रसागर प्रचंडिया 87 श्री सम्मेदशिखर पूजा, जवाहरलाल जी। 88 श्री सम्मेदशिखर पूजा, कविवर रामचन्द्रजी; वही, जवाहरलालजी / 56 आलोचना पाठ, कविवर श्री जौहरी / 6. शीतलनाथ जिन पूजा, मनरंगलालजी / 61 छहढाला, छठी ढाल, दौलतरामजी। -------- PRO ----पूष्करवाणी ---------------------- ------------------------ory कपड़ा चाहे जितने विभिन्न रूपों में है, आखिर वह है क्या ? सूत का तानाबाना ! और सूत क्या है-रुई का लम्बा कता हुआ रेशा ! यह देह, चमड़ी चाहे जितनी विभिन्न आकृतियाँ व रूप धारण कर ले आखिर है क्या ? पाँच तत्त्वों का पिण्ड मात्र I और पंचतत्त्व क्या हैं ? पुद्गल समूह मात्र! फिर कपड़े पर इतना राग और द्वेष क्यों ? देह पर इतनी ममता और घृणा क्यों ? 0-0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0--0-------------- -------------- 1 Jain Education Interational