Book Title: Hemchandracharya aur Unka Siddha Hem Vyakaran
Author(s): Arun Shantilal Joshi
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ऐसे अनेक सुंदर दूहा द्वारा सुंदर काव्य से कर्ता ने आठवां अध्याय निरूपित किया है। आचार्यश्री ने प्राकृतभाषा को सरलता से समझाने के लिये, समसंस्कृत, तद्भव और देश्य प्राकृत को लक्ष्य में रखकर जिन सूत्रों की रचना की है उनका परिचय अब प्राप्त करें:। १) स्वरस्य उद्वेत्ते। व्यंजन के साथ जुड़ा हुआ जो स्वर होता है उसमें से व्यंजन निकल जाने के बाद जो स्वर बचता है उसको उदि॒त्त संज्ञा दी गई है। २) स्वरे अंतरश्च। अर्थात अंतर, निर या दुर के बाद स्वर आने पर 'र' का लोप नहीं होता है। निर + अंतर = निरंतर, अंतर + अप्पा = अंतरप्पा, दुर + अवगाह = दुरवगाह। ३) मांसादेः वा। अर्थात् मांस आदि शब्दों में अनुस्चार का विकल्प लोप होता है। प्राकृत में मांस और मास दोनों शब्द है। संमुहं भी है और संमुहं भी है कि करोमि और किं करमि-दोनों प्रयोग सही है। ४) ई: हरे वा। अर्थात हर शब्द में आदि 'अ' का विकल्प से ई भी होता है। अत: हीर और हर का अर्थ शंकर है। ५) द्वारे वा। यहां कहा गया है कि द्वार शब्द में 'आ' का ए विकल्प से होता है। अतः दार और देर शब्द निष्पन्न होता है। प्राकृत शब्द 'डेरातंबु' का डेरा शब्द देर पर से आया है। ६) किरात च। अर्थात किरात शब्द का 'क' प्राकृत में 'च' हो जाता है। 'किरात' के लिये 'चिलाओं' शब्द मिलता है। ७) स्थूले लः रः। अर्थात संस्कृत स्थूल शब्द के लिये जब प्राकृत शब्द बनता है तब 'ल' का 'र' होता है और स्थूल पर से थारे शब्द उत्पन्न होता है। ८) गृहस्य घर: अपतौ। अर्थात जब गृह के साथ पति शब्द नहीं जुड़ा होता है तब गृह का प्राकृत में घर शब्द होता है। गृहपति के लिये प्राकृत में 'गृहपई' बनता है किंतु घरपई नहीं बन सकता है। इस कतिपय दृष्टांतों से स्पष्ट होता है कि अष्टम अध्याय वर्तमान कालीन गुजराती, हिंदी, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के इतिहास पर विशेष ध्यान देता है। आचार्यश्री हेमचंद्राचार्य को प्राकृत व्याकरण के पश्चिमी संप्रदाय के प्रमुख वैयाकरण माना जाता है। इस अंतिम अध्याय का सर्वप्रथम सम्पादन विदेशी विद्वान पिशले ने किया था। आचार्यश्री ने साहित्य एवं लोक में प्रचलित रूपों को ध्यान मे रख कर नियमावली प्रस्तुत की है। विषय की संपूर्ण चर्चा करने का प्रयत्न किया है फिर भी डॉ. डोल्चीनित्ति ने उनकी उग्र आलोचना करते हुए लिखा है कि 'सिद्धहेम' में प्राकृत व्याकरण की पूर्णता नहीं है, प्रौढ़ता नहीं है और कोई विशेष प्रतिभा नहीं है। ग्रंथ के अनुशीलन करने से हम इस आलोचना से सहमत नहीं है। भारत वर्ष में संस्कृत व्याकरण का उद्गम अति प्राचीन काल से हुआ था। पाणिनि ने भी अपने से पूर्व आविभूर्त आपिशलि काश्यप, गालव जैसे दस व्याकरण शास्त्रियों का उल्लेख किया है। व्याकरण शास्त्र में पाणिनि, कात्यायन या वररुचि और पंतजलि मुनित्रय संज्ञा से अतीव ख्याति प्राप्त हुए हैं। हेमचंद्र के व्याकरण का मूल स्त्रोत कौन है यह प्रश्न संशोधन का विषय रहा है किंतु हेमचंद्राचार्य ने केचिन, . (२२७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5