Book Title: Hemchandracharya aur Unka Siddha Hem Vyakaran Author(s): Arun Shantilal Joshi Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 3
________________ ४) अन्यो घोषवान् । सूत्र नं ३ में लिखित १३ के अतिरिक्त जो व्यंजन हैं वे सब घोष अथवा कोमल है। ५ ) यरलवा अंतस्थाः । य, र, ल, व, अंतःस्थ है। ६) स्वतंत्र कर्ता । क्रिया की सिद्धि में जो प्रधान होता है वह प्रधान होता है वह 'कर्ता' है। ७) कर्तुः व्याप्यं कर्म। अपनी क्रिया से कर्ता जिस वस्तु को विशेषतः प्राप्त करना चाहता है वह व्याप्त कहलाता है और उसको कर्म संज्ञा दी गई है। ८) साधकतमं करणम्। क्रिया करने में जो अधिक से अधिक सहायक होता है उसको करण कहते ९) कर्मामिप्रयेः संप्रदानम् । कर्त्ता, कर्म द्वारा या क्रिया द्वारा जिसका विशेषतया इच्छता है वह संप्रदान है। १०) अपायेऽपधिरपादानम् । अपाय को विच्छेद कहते है। उपाय की जो अवधि है वह 'अपादान' ११) क्रियाऽऽश्रयस्या ऽऽधाने धिकरणय् । क्रिया के आश्रय रूप कर्त्ता या कर्म का जो आधार है वह 'अधिकरण' है। १२) गिरिनदीनाम्। गिरि, नदी आदि शब्दों में 'न' का विकल्प से 'ण' होता है तदनुसार गिरिणदी या गिरिनदी दोनों शब्द सिद्ध होते है । अब तक उदाहरण रूप जिन सूत्रों का उल्लेख किया वे संस्कृत व्याकरण के बोधक सूत्र है किंतु श्री हेमचंद्राचार्य ने सिद्धहेम का आठवाँ अध्याय प्राकृत भाषा के व्याकरण के लिये लिखा है । उसमें उन्होंने महाराष्ट्री, शौरसेनी अपभ्रंश आदि भाषाओं के व्याकरण की चर्चा की है। महावीर स्वामी ने अल्प शिक्षितों को ख्याल में रखकर प्राकृत में उपदेश दिया था। अतः प्राकृत भाषा के ज्ञान से देश्य भाषा की रचना शास्त्रीय रीति से ज्ञात हो सके इस आशय को ध्यान में रखकर श्री हेमचंद्राचार्य ने अपने व्याकरण ग्रंथ में प्राकृत भाषा का व्याकरण समाविष्ट किया है। 'सिद्धहेम' के अंतिम यानि के आठवें अध्याय में एक हजार सूत्र द्वारा प्राकृत भाषा का व्याकरण रचा है। यह भाषा समाज में जीवंत होने से उन्होंने कतिपय दूहा- छंद रचना भी इसी अध्याय में समाविष्ट की है। एक उदाहरण देखें। - अर्थात् हे बहन, एक झोपड़ी कुटुंब स्वच्छंदी हो वहाँ सुख कहाँ ? । Jain Education International एक्क कुडुली पंचहि रूद्धि तह पंचहं विजुअं जुअं बुद्धि । बहिणुएं तं घरुं कहि किंव नंदउ जेत्थु कुडुंबउं अप्पणछंदउ ॥ में पाँच जन रहते है उन सब के विचार एक समान नहीं है। जहाँ (२२६) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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