Book Title: Hathigumpha Inscription of Kharavela and Bhabru Edict of Asoka
Author(s): Shashi Kant
Publisher: D K Print World

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Page 142
________________ The Hathigumpha Inscription and the Bhabru Edict एवं चतुर्थ वर्ष में वह विद्याधरों के आवास ( = विंध्याचल ) में, जिसे कलिंग का कोइ भूतपूर्व राजा आहत न कर सका था, निवास करते हैं और सभी रठिकों और भोजकों से जिनके मुकुट और अलंकृत अश्व नष्ट कर दिये गये, छत्र और भृंगार निक्षिप्त कर दिये गये और रत्न एवं धन अपहृत कर लिये गये, अपने चरणों की वंदना कराते हैं। 116 और पंचम शुभ वर्ष में १०३ वें वर्ष में राजा नन्द द्वारा उद्घाटित तनसुलियवाटा -प्रणाली ( = नहर ) को..... सहस्र (मुद्रा) व्यय करके वह राजधानी में प्रवेश कराते हैं। तथा राज्याभिषेक के छठे वर्ष में राज्य के ऐश्वर्य के प्रदर्शन हेतु वह सभी राज्य कर माफ कर देते हैं और नगर एवं ग्राम निवासियों पर लाखों मुद्राओं के मूल्य के अन्य अनेकों अनुग्रह विसर्जित करते हैं। और जब वह सप्तम वर्ष में शासन कर रहे थे तो [ पुण्य के उदय से उनकी वजिरघरवती नाम की ग्रहिणी ने माता का पद प्राप्त किया। एवं अष्टम वर्ष में अप्रतिहत भित्ति वाले गोरथगिरि का घात करके राजगृह के राजा को वह पीड़ा पहुँचाते हैं। और इस पराक्रम के कार्य की परम्परा में मथुरा को विमुक्त कराते हुए वह अपने सैन्य वाहन सहित..... यमुना [ नदी] पहुँच जाते हैं । [तथा सभी अधीनस्थ राजाओं को साथ लेकर चलते हैं] पल्लवभार से युक्त कल्पवृक्ष, अश्व - सैन्य, गज- सैन्य और रथ- सैन्य के साथ वह सब गृहस्थों द्वारा पूजित स्तूप की पूजा करने के लिए जाते हैं एवं सर्वग्रहण अनुष्ठान करने के लिए ब्राह्मणों की जाति को दान देते हैं, और अरहंत की पूजा करते हैं ] । [ तथा नवम वर्ष में] इस उत्तम विजय की (स्मृति हेतु) प्राची नदी के दोनों तटों पर वह महाविजय - प्रासाद नाम के राजमहल का अड़तीस लाख (मुद्रा) की लागत से निर्माण कराते हैं। और दसवें वर्ष में दंड और संधि के स्वामी वह सम्पूर्ण पृथ्वी की विजय हेतु भारतवर्ष में प्रस्थान के लिए (तैयारी ) कराते हैं। [ एवं ग्यारहवें वर्ष में वह मणि और रत्नों के साथ दक्षिण दिशा में मंद गति से प्रयाण करते हैं और अव (आन्ध ? ) राजाओं के निवास पिथंड नगर में गदहों के हल चलवाते हैं; तथा अपने राज्य के कल्याण की दृष्टि से ११३ वें वर्ष में बने तमिल देशों के संघ को भेदते हैं। और बारहवें वर्ष में सहस्रों (वीरों की सेना के साथ) [ उत्तर की ओर प्रयाण करते हुए ] वह उत्तरापथ के राजाओं को त्रस्त करते हैं और मगध वासियों के हृदय में विपुल भय पैदा करते हुए अपने हाथियों और घोड़ों को गंगा में पानी पिलाते हैं, तथा मगध के राजा वृहस्पतिमित्र से अपने चरणों की वंदना कराते हैं, नंद-राज द्वारा कलिंग से लायी गयी जिनेन्द्र की प्रतिमा की मन्दिर में पूजा करते हैं, और राज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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