Book Title: Haribhadrasuri ka Gruhasthachar Author(s): Pushpalata Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 3
________________ आचार्य हरिभद्र सूरि का गृहस्थाचार | ३०९ वर्ग की रक्षा, (१५) गौरव रक्षा, (१६) दीन जनों की सेवा, (१७) स्वास्थ्य रक्षा, (१८) लोक-व्यवहार का पालन, (१९) प्रतिदिन धर्म श्रवण, (२०) कदाग्रह का त्याग प्रादि । इन गुणों से युक्त व्यक्ति ही जैन श्रावक होने का अधिकारी है। पं. प्राशाधर ने लगभग इन सभी गुणों को सागारधर्म के अन्र्तगत गिना दिया है। हरिभद्र के मत से इन सामान्य गुणों से समन्वित होकर गहस्थधर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने लगता है। इसे उसके आध्यात्मिक विकास का द्वितीय चरण कहा जा सकता है। इस चरण में प्राचार्य ने गहस्थदेशना विधि बतायी है। इस विधि में सर्वप्रथम उन्होंने धर्म की व्याख्या की है । यह व्याख्या करते समय धर्म के अधिकारी, चिह्न, गुण आदि पर भी विस्तार से विचार किया है। यह सब कदाचित इसलिए भी किया है कि व्यक्ति जब तक धर्म के वास्तविक स्वरूप से परिचित न हो, उसकी ओर अपने प्रभावी कदम नहीं बढा सकता। ललितविस्तरा में तो सर्वप्रथम उन्होंने धर्म के अधिकारी का ही निर्णय किया है। उनकी दष्टि में धर्म का पालन बही कर सकता है जो जिज्ञास हो, विधितत्पर हो, शुद्ध पाजीविका वाला हो और निर्भय हो। इसके साथ ही धर्मकथा प्रीति, धर्म-निन्दा-अरुचि, धर्म-निंदक पर दया, धर्म में चित्त स्थापन, गुरु-विनय, शक्तित: त्याग इत्यादि गुण होना भी आवश्यक है। इन गुणों से व्यक्ति का हृदय प्राध्यात्मिकता में पक जाता है और वह धर्म के मर्म को समझने लगता है। सम्यग् अध्ययनपूर्वक उसकी कर्तव्य बुद्धि जाग्रत हो जाती है । साधना की विशुद्धि के लिए यह आवश्यक है कि साधक निरपेक्ष होकर कर्मों का उपशमन करे । धर्म को वृक्ष का रूपक देते हुए प्राचार्य ने स्पष्ट किया कि साध्य धर्म की चिन्ता व प्रशंसा करना, धर्म के लिए बीजवपन है, उसकी अभिलाषा करना अंकुरादि अवस्था है, सम्यग् उपदेश का श्रवण करना शाखामों का फटना है, सम्यग् विशुद्ध आचरण करना उसका पत्र-प्रस्फुटन है, सम्यग् आचरण से पुण्य द्वारा देव, मनुष्य आदि जन्मों में सुख प्राप्ति पुष्प अवस्था है। और अंत में मोक्ष की उपलब्धि धर्म की फल अवस्था है। ___ 'धम्मनायगाणं' की व्याख्या में प्राचार्य ने धर्मनायकों के गुणों की ओर संकेत करते हुए धर्म-प्राप्ति का मार्ग तथा उसके फल को स्पप्ट किया है। उन्होंने कहा है कि तीर्थंकर के धर्म नायक होने में चार कारण हैं-धर्म पालन करने का प्रणिधान, उसका निरतिचार पालन, यथोचित धर्मोपदेश और धर्मोपदेश स्वयं देना । धर्म के फलस्वरूप ही तीर्थंकर प्रातिहार्य, समवसरणादि से विभूषित होते हैं । तथ्य यह है कि धर्म एक प्रांतरिक जागृति का शुभ परिणाम है। जिज्ञासा, अभिलाषा और सत्प्रयत्नों से व्यक्ति धर्म की ओर बढ़ता है और समभावी बन जाता है। प्राचार्य हरिभद्र ने देशना क्रम में यह भी निर्देश दिया है कि प्रवृत्तिमार्गी को क्रिया मार्ग से, प्रेमी को भक्ति मार्ग से, और ज्ञानी को ज्ञान मार्ग से उपदेश दिया जाना चाहिए । इस क्रम से वह उपदेशक श्रावक को स्वाध्याय की ओर प्रेरित कर सकता है । ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार और वीर्याचार का पालन करते हुए साधक अध्यात्म की ओर आगे बढ़ जाता है। इस प्रकार पुरुषार्थपूर्वक वह गंभीर देशना प्राप्त करने का अधिकारी नमो दीयो Jain Education International For Private & Personal Use OnlyPage Navigation
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