Book Title: Haribhadrasuri ka Gruhasthachar
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 1
________________ आचार्य हरिभद्रसूरि का गृहस्थाचार 0 डॉ. पुष्पलता जैन हरिभद्रसूरि जन्मतः ब्राह्मण पर कर्मतः एक सही श्रमण थे । हस्तिघटना ने उन्हें एक कर्मठ जैन, बहुश्रुत प्राचार्य बना दिया। उनका बहुश्रुत व्यक्तित्व वैदिक, बौद्ध और जैन परम्परा के गहन अध्ययन से अोतप्रोत था। उनके समूचे साहित्य में सभी भारतीय चिंतनपरम्परामों के पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं। इतना ही नहीं बल्कि उनकी समीक्षा से उनकी ताकिक शक्ति का भी पता चलता है। हरिभद्रसूरि का समय भले ही विवादग्रस्त माना जाए पर उन्हें हम पाठवीं-नवमी शताब्दी का विद्वान् तो मान ही सकते हैं । हम यह जानते हैं कि यह समय बौद्ध युग का उतारकाल था। जैन मनीषियों का गंभीर पांडित्य ह्रास की ओर जाने लगा था। चारित्र की भी यही स्थिति थी। जैन आचार और समाजव्यवस्था पर वैदिक प्राचार और समाज-व्यवस्था हावी होने लगी थी और अधिकांश वैदिक क्रियाओं का जैनीकरण किया जाने लगा था। जैनाचार्यों ने ऐसी स्थिति से समाज को किंवा धार्मिक प्राचार को बचाने का प्रयत्न अवश्य किया पर तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितिवश वे ऐसा नहीं कर सके । फलतः जैनाचार्यों को वैदिक आचार संहिता की ओर मुड़ना पड़ा। यह एक अच्छी बात रही कि इस मोड़ में उन्होंने जैनाचार के मूलरूप को कभी नहीं छोड़ा। यह तथ्य हरिभद्र सूरि के ग्रन्थों से भी उद्घाटित होता है। प्राचार्य हरिभद्रसरि की ग्रन्थ-सम्पदा इतनी समद्ध है कि एक तो वे सारे के सारे उपलब्ध नहीं हो पाते और यदि उपलब्ध हो भी जाएँ तो एक लेख में उनका समूचा उपयोग किया जाना संभव नहीं होगा। श्रावकाचार से सम्बद्ध उनकी कृतियों में विशेष उल्लेखनीय हैं-पंचसूत्रक (टीका), पंचनिपंठी (?), पंचवत्थुग, सावयधम्मविहि पकरण (?) पंचासग, धर्मस्तरं, सावयधम्मतंत, धर्मबिन्दु और ललितविस्तरा। इनमें से मेरे सामने अंतिम दो ही ग्रंथ हैं इसलिए प्रस्तुत निबंध इन दोनों ही के आधार पर लिखा गया है। श्रावकाचार अनगारचार के लिए एक आधारशिला होती है। अनगार के व्रत-तप आदि प्राचार की प्रक्रिया गृहस्थावस्था में ही प्रारंभ हो जाती है, अतः इस अवस्था का उत्तरदायित्व श्रावकाचार के प्रति विशेष बढ़ जाता है। श्रावक के लिए गृहस्थ, उपासक और अणव्रती इन तीन शब्दों का प्रयोग अधिक होता है । ये सभी शब्द श्रावक की सीमा को इंगित करते हैं। प्राचार्य उमास्वाति ने श्रावक उसे माना है जो सम्यग-दृष्टि साधुओं के पास उत्कृष्ट समाचारी श्रवण करता है, वह श्रावक है। हरिभद्रसूरि ने श्रावक की अपेक्षा गृहस्थ शब्द का उपयोग अधिक अनुकूल माना और उसे ही सामान्य और विशेष भागों में विभाजित किया। को दीवो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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