Book Title: Gyanbhandaro par Ek Drushtipat
Author(s): Punyavijay
Publisher: Gujarat Vidyasabha

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Page 20
________________ प्रन्थोंकी लिपिमें सत्रहवीं शतीके अन्त तक पृष्ठमात्रा - पडिमात्रा और अग्रमात्राका ही उपयोग अधिक प्रमाणमें हुआ है, परन्तु उसके बाद पृष्ठमात्राने ऊर्ध्वमात्राका और अग्रमात्राने अधोमात्राका स्वरूप धारण किया । इसके परिणामस्वरूप बादके जमानेमें लिपिका स्वरूप संक्षिप्त और छोटा हो गया। लेखक अथवा लहिया अपने यहाँ ग्रन्थ लिखनेवाले लेखक अथवा लहिए कायस्थ, ब्राह्मण आदि अनेक जातियोंके होते थे । कभी कभी तो पीढ़ी दर पीढ़ी उनका यह अविच्छिन्न व्यवसाय बना रहता था । ये लेखक जिस तरह लिख सकते थे उसी तरह प्राचीन लिपियाँ भी विश्वस्त रूपसे पढ़ सकते थे। लिपिके प्रमाण और सौष्ठवकी ओर उनका बहुत व्यवस्थित ख्याल रहता था। लिपिकी मरोड़ या उसका विन्यास भिन्न भिन्न संस्कारके अनुसार भिन्न भिन्न रूप लेता था और लिपिके प्रमाणके अनुसार आकार-प्रकार में भी विविधता होती थी। कोई लेखक लम्बे अक्षर लिखते तो कोई चपटे जबकि कोई गोल लिखते । कोई लेखक दो पंक्तियों के बीच मार्जिन कमसे कम रखते तो कोई अधिक रखते । पिछली दो तीन शताब्दियोंको बाद करें तो खास करके लिपिका प्रमाण ही बड़ा रहता और पंक्तियों के ऊपर-नीचेका मार्जिन कमसे कम रहता। वे अक्षर स्थूल भी लिख सकते थे और बारीकसे बारीक भी लिख सकते थे। लेखकोंके वहम भी अनेक प्रकारके थे। जब किसी कारणवश लिखते लिखते उठना पड़े तब अमुक अक्षर आए तभी लिखना बन्द करके उठते, अन्यथा किसी-न-किसी प्रकारका नुकसान उठाना पड़ता है - ऐसी उनमें मान्यता प्रचिलत थी। जिस तरह अमुक व्यापारी दूसरे का रोजगार खूब अच्छी तरहसे चलता हो तब ईर्ष्यावश उसे हानि पहुँचानेके उपाय करते हैं उसी तरह लहिए भी एक दूसरेके धन्धेमें अन्तराय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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