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नेमें नीचे उतरनेके रास्तेके मुखके लिये ऐसी व्यवस्था की गई है कि विप्लवके अवसर पर उसे भी बड़े भारी पहाड़ी पत्थरसे इस तरह ढाँप दिया जाय जिससे किसीको कल्पना भी न आ सके कि इस स्थानमें कोई चीज़ छुपा रखी है। तहखानेके मुँहको ढंकनेका उपर्युक्त महाकाय पत्थर इस समय भी वहाँ मौजूद है।
जिस तरह ज्ञानसंग्रहाका सुराक्षत रखनक लिये मकान बनाए जाते थे उसी तरह उन भाण्डारोंको रखनेके लिये लकड़ी या पत्थरकी बड़ी बड़ी मजूसा (सं. मंजूषा-पेटी) या अलमारियाँ बनानेमें आती थीं। प्राचीन ज्ञानभाण्डाके जो थोड़े-बहुत स्थान आजतक देखनेमें आए हैं उनमें अधिकांशतः मजूसा ही देखने में आई हैं। पुस्तकें निकालने तथा रखनेकी सुविधा एवं उनकी सुरक्षितता अलमारियोंमें होने पर भी मजूसा ही अधिक दिखाई देती हैं । इसका कारण उनकी मज़बूती और विप्लवके समय तथा दूसरे चाहे जिस अवसर पर उनके स्थानान्तर संचारणकी सरलता ही हो सकता है। यही कारण है कि इन मजूसोंको पहिए भी लगाए जाते थे। यह बात चाहे जैसी हो, परन्तु ग्रन्थ-संग्रहको सुरक्षितता और लेने-रखनेकी सुविधा तो ऊर्ध्वमहामंजूषा अर्थात् अलमारीमें ही है। जेसलमेरके तहख़ानेमें लकड़ी एवं पत्थरकी मजूसाएँ तथा पत्थरकी अलमारियाँ विद्यमान थीं परन्तु मेरे वहाँ जानेके बाद वे सब वहाँसे हटा लिए गए हैं और उनके स्थानमें वहाँपर नई स्टीलक अलमारियाँ आदि बनवाई गई हैं। हम जब जेसलमेर गए तब वहाँका ग्रन्थसंग्रह उपर्युक्त मजूसाओंमें रखनेके बदले पत्थरकी अलमारियोंमें रखा जाता था। बड़ी मारवाड़में लकड़ीकी अपेक्षा पत्थर सुलभ होनेके कारण ही उनके अलमारियाँ बनाई जाती थीं। अतः इनकी मजबती आदिके बारेमें किसी में प्रकारके विचारको अवकाश ही नहीं है ।
जैन श्रीसंघका लक्ष्य ज्ञानभाण्डार बसानेकी ओर जब केन्द्रित हुआ तब उसके सम्मरख उनके रक्षणका प्रश्न भी उपस्थित हआ। इस प्रश्नके समाधानके
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