Book Title: Gyanarnav me Dhyan ka Swarup Author(s): Prem Suman Jain Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 4
________________ ज्ञानार्णव में ध्यान का स्वरूप / ६९ मन की शुद्धि ध्यान की साधना के लिए अनिवार्य है। शुद्ध मन से ही अन्तःकरण में विवेक जागृत होता है, जो हेय-उपादेय का ज्ञान कराता है। मन का संयम सही ध्यान की कसौटी है। प्राचार्य कहते हैं कि जो योगी स्वतन्त्र प्रवृत्त होने वाले चित्त को नहीं जीत पाता और यदि वह ध्यानी होने का दावा करता है तो उसे लज्जा पानी चाहिए। क्योंकि मन की एकाग्रता के बिना ध्यान सम्भव नहीं है। मन की स्थिरता ही ध्यान की साधना का प्रमाण है । ज्ञान से संस्कारित स्थिर मन वाले योगी के लिए फिर बाह्य साधनाओं की आवश्यकता नहीं रहती।' संक्षेप में ध्यान का लक्षण स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि जिसके आश्रय से मन अज्ञान को लांघकर प्रात्मस्वरूप में स्थिर हो जाय वही ध्यान है, वही विज्ञान है, वही ध्येय है और वही तत्त्व (परमार्थ) है तध्यानं तद्धि विज्ञानं तदध्येयं तत्त्वमेव वा। येन विद्यामतिक्रम्य मनस्तत्त्वे स्थिरीभवेत् ॥ २०१९ ज्ञानार्णव में ध्यान और साम्यभाव को परस्पर जुड़ा हुआ माना गया है। मन की स्थिरता, साम्यभाव से जैसे ध्यान की साधना सम्भव है, वैसे ही एकाग्र चित्त से किये गये ध्यान से प्रात्मा में साम्यभाव प्रकट होता है। अतः ध्यान का उद्देश्य भी समता है और साधन भी समता है । समता को छोड़कर अन्य किसी उद्देश्य से किया गया ध्यान प्रात्मकल्याणक नहीं हो सकता। वशीकरण, प्रदर्शन, चमत्कार आदि के लिए किया गया ध्यान दुर्गति का कारण बनता है, अात्महित का पोषक नहीं। इसलिए शुभचन्द्र ने ध्यान के प्रमुख चार भेदों का भी विस्तार से वर्णन किया है । मूलतः ध्यान दो प्रकार का है-प्रशस्त ध्यान एवं अप्रशस्त ध्यान । जो ध्यान वस्तुस्वभाव के यथार्थ ज्ञान से रहित है तथा जिसमें मन की स्थिरता, संयम नहीं है, वह अप्रशस्त ध्यान है तथा जहां राग-द्वेष से रहित समताभाव है एवं यथार्थज्ञान है, वहाँ प्रशस्त ध्यान है । ध्यान के प्रमुख चार भेद जैनपरम्परा में स्वीकृत हैं-प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान । इनमें से प्रथम दो ध्यान दुर्ध्यान कहे गये हैं, जो जीवों को अत्यन्त दुःख देने वाले हैं, जबकि अंतिम दो ध्यान कर्मों की निर्जरा करने में समर्थ हैं। प्रार्तध्यान में व्यक्ति अनिष्ट वस्तुओं के संयोग से दुःख पाता है। विष, कण्टक आदि पदार्थों के संयोग के ध्यान से व्यक्ति आतंकित बना रहता है। कभी वह स्त्री, पुत्र, धन-सम्पत्ति प्रादि इष्ट वस्तुओं एवं स्वजनों के वियोग की कल्पना करके दु:खी होता रहता है, कभी व्यक्ति को नाना प्रकार के रोग वेदना पहुँचाते रहते हैं। इस वेदना से बचने के लिए व्यक्ति का मन विकल्पों से भरा रहता है। ऐसा पार्तध्यानी व्यक्ति कभी भविष्य में होने वाले भोगों से सुख-प्राप्ति का निदान करता रहता है। ये सभी प्रकार के विचार प्रार्तध्यान के द्योतक १. यस्य चित्तं स्थिरीभूतं प्रसन्नं ज्ञानवासितम् ।। सिद्धमेव मुनेस्तस्य साध्यं कि कायदण्डनैः ।। -२०।२६ २. साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वशिभि । --२२११३ ३. ज्ञानार्णव, २३।१६-१७ ४. अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम् । रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानात्तुर्यमणिमाम् ।। २३।२२ आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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