Book Title: Gyanarnav me Dhyan ka Swarup
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 3
________________ पंचम खण्ड /६८ अर्चनार्चन यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्तः किन लज्जिताः । मातुः पणमिवालम्ब्य यथा केचित्गतषणाः ॥ ४॥५४ ज्ञानार्णव के अनुसार सच्चा ध्याता वही हो सकता है, जिसने वास्तविक संयम को प्राप्त किया है । निर्मल ज्ञान की साधना से जिनका अन्तःकरण पवित्र है, जगत् के सभी जीवों के प्रति जिनके मन में दया एवं संरक्षण का भाव है, जो वायु की तरह परिग्रह के मोह से रहित हैं, वे ही योगी सच्चे ध्याता हैं, ध्यान के अधिकारी हैं। जिस योगी के ध्यानस्थ होने पर प्राणवायु का संचार रुक जाता है, शरीर नियमित हो जाता है, इन्द्रियों की प्रवृत्ति रुक जाती है, नेत्रों का स्पन्दन नष्ट हो जाता है, अन्तःकरण विकल्पों से रहित हो जाता है, मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है तथा विश्व को प्रकाशित करने वाला तेज प्रकट हो जाता है, वह योगी धन्य है। वही ध्यान के श्रेष्ठ प्रानन्द को अनुभव कर सकता है । आचार्य शुभचन्द्र भारतीय योगदर्शन से अच्छी तरह परिचित थे। उन्होंने अपने ग्रन्थ में जैन, अजैन सभी योग-परम्परामों का प्रकारान्तर से उल्लेख किया है। प्रशस्त ध्यान के लिए मन पर संयम प्रावश्यक है। विभिन्न दार्शनिक मन के संयम के लिए अलग-अलग साधनों का उल्लेख करते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, योग के इन पाठ अंगों का वर्णन भारतीय परम्परा में विस्तार से हरा है। इनका लक्ष्य मन पर संयम पाकर योग की साधना करना है। शुभचन्द्र कहते हैं कि कुछ दार्शनिक उत्साह, निश्चय, धैर्य, सन्तोष, तत्त्वनिश्चय और देशत्याग, इन छह अंगों से भी योगसाधना की सिद्धि मानते हैं। कुछ योगी ध्यान की साधना में कारण-चतुष्टय-गुरु का उपदेश, उपदेश पर भक्ति, सतत चिंतन और मन की स्थिरता-को भी अनिवार्य मानते हैं। आचार्य शुभचन्द्र का मानना है कि इन सब में मन की निर्मलता प्रमुख है, जो मन के संयम से आती है । मन यदि स्वाधीन है तो विश्व स्वाधीन हो जाता है। मन पर संयम व्रतनियम आदि के परिपालन और राग-द्वेष पर विजय पाने से हो सकता है। मन की शुद्धि से ही कर्ममल की शुद्धि होती है। मन-शुद्धि के बिना ध्यान सम्भव नहीं है । मन शुद्ध हो तो ध्यान भी शुद्ध होगा एवं कर्म भी नष्ट होंगे। यथा ध्यानसिद्धि मनःशुद्धिः करोत्येव न केवलम् । विच्छिनत्यपि निःशङ्का कर्मजालानि देहिनाम् ॥ २०१४ १. ज्ञानार्णव, ३.१४-१७ २. रुद्ध प्राणप्रचारे वपुषि नियमिते संवत्तेऽक्षप्रपंचे, नेत्रस्पन्दे निरस्ते प्रलयमुपगतेऽन्तविकल्पेन्द्रजाले । भिन्ने मोहान्धकारे प्रसरति महसि क्वापि विश्वप्रदीपे, धन्यो ध्यानावलम्बी कलयति परमानन्दसिन्धुप्रवेशम् ।। ५।२२ ३. उत्साहान्निश्चयाद्धर्यात् संतोषात्तत्त्वनिश्चयात् । मुनेर्जनपदत्यागात् षड्भिर्योगः प्रसिध्यति ।। ५।१ ४. वही, ५।१,१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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