Book Title: Gyanarnav Ek Vishleshan Author(s): C L Shastri Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 5
________________ जैन योग का एक महान् ग्रन्थ- ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण / १३३ पिता ने बहुत रोका, समझाया। पर वे विनम्रतापूर्वक अपनी बात पर अड़े रहे । श्रन्त में पिता को स्वीकृति देनी पड़ी। पिता की आँखों से स्नेह के धांसू टपकते रहे और वे उनके देखते-देखते बीहड़ वन में खो गए। दोनों राजकुमारों के जीवन ने दो मोड़ पकड़े । शुभचन्द्र ने एक दिगम्बर मुनि के पास श्रमण-दीक्षा स्वीकार कर ली तथा चारित्र धर्म का पालन करते हुए घोर तप में अपने को लगा दिया। भर्तृहरि एक तांत्रिक तपस्वी के सान्निध्य में चले गए। उन्होंने कौल तंत्र की दीक्षा ले ली। जटा, भस्म, कमंडलु, चिमटा, कंदमूल से जीवन यापन - यह सब उनके परिवेश और निर्वाह का रूप था। अपने इसी क्रम के बीच एक बार वन में घूमते हुए वे मार्ग भूल गए। चलते-चलते एक योगी के पास पहुँच गए, जिसके पांच और अग्नि जल रही थी, । शिष्य बन गए । वह योगी मंत्र, तंत्र, यंत्र आदि जो ध्यान में लीन था । भर्तृहरि उससे प्रभावित हुए और उसके अनेक विद्याओं का वेत्ता था। भर्तृहरि बारह वर्ष उसके पास रहे तथा अनेक विद्याएं सोखीं। फिर उन्होंने गुरु से भ्रमण की आज्ञा चाही उन्हें एक तंबी दी, जो एक विशिष्ट रस से भरी थी । उस रस का यह छुपाने मात्र से तांबा सोना हो जाता । भर्तृहरि गुरु को प्रणाम कर चल पड़े और एक उपयुक्त स्थान पर स्वर्ण बनाने का चमत्कार उनके पास था । उनके सैकड़ों शिष्य हो गए । सेवा-परिचर्या करने लगे । उनका प्रभाव और ख्याति फैलने लगी । गुरु प्रसन्न थे। उन्होंने प्रभाव था कि उसको Jain Education International घासन जमा लिया । अनेक सेवक हो गए । आया। मुनि शुभचन्द्र की स्थिति, एक दिन बैठे-बैठे योगी भर्ती हरि के मन में अपने भाई शुभचन्द्र की याद आई कहाँ हैं, कैसे हैं, क्या करते हैं, कुछ भी ज्ञात नहीं । अपने एक शिष्य को शुभचन्द्र की खोज करने भेजा। शिष्य को श्रम तो बहुत हुआ, पर अन्ततः उसने शुभचन्द्र का पता लगा लिया। उसने देखावे नग्न हैं । अंगुलमात्र भी वस्त्र उनके पास नहीं हैं, और भी कुछ नहीं है । केवल एक कमंडलु है। शिष्य दो दिन वहाँ रहा। भूखा ही रहा। भोजन की कौन पूछता ? तीसरे दिन मुनि को प्रणाम कर रवाना हो गया, अपने गुरु के पास वातावरण आदि का शिष्य के मन पर जो प्रभाव पड़ा था, उसके अनुसार उसने अपने गुरु से निवेदन किया- आपके भाई बड़ी दुरवस्था और संकट में हैं । वस्त्र के नाम पर तो उनके पास लंगोटी तक नहीं है, न खाने-पीने की व्यवस्था है और न कोई और सुविधा है। असुविधा और कष्ट ही कष्ट है । वे बड़ी दरिद्रावस्था में हैं । श्राप कुछ सहायता कीजिए। भाई की दुर्दशा सुन भर्तृहरि बड़े खिन हुए। उन्होंने अपनी तूंची का आधा रस एक दूसरी तूंबी में उंडेला । शिष्य को वह तूंबी दी और कहा- जाम्रो, मेरे भाई को यह दे प्रायो । उन्हें बतला देनाइससे जितना जैसा जब चाहो, स्वर्ण बनाते रहना । शिष्य प्रसन्नता से चलता चलता मुनि शुभचन्द्र के पास पहुँचा । उन्हें वह तूंबी दी, उसका प्रभाव बतलाया और भाई भर्तृहरि के समाचार कहे । मुनि शुभचन्द्र बोले- बहुत अच्छा ! यह रस पत्थर पर डाल दो। शिष्य आश्चर्यचकित हो गया। कहने लगा ऐसी अद्भुत और चमत्कारी वस्तु को भाप यों नष्ट करना चाहते हैं ? शुभचन्द्र ने कहा- तुम्हें इसकी चिन्ता क्यों है ? जो वस्तु मुझे दी जा चुकी है, उसका मैं चाहे जैसे उपयोग करू । यदि ऐसा नहीं कर सको तो इसे वापस ले जाओ। शिष्य बड़े धर्मसंकट में पड़ गया। वापस ले जाने पर गुरु रुष्ट होंगे, पत्थर पर डाल देने से अमूल्य रस वृथा For Private & Personal Use Only आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम www.jainellibrary.orgPage Navigation
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