Book Title: Gyanarnav Ek Vishleshan Author(s): C L Shastri Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 9
________________ जैन-योग का एक महान् ग्रन्थ-ज्ञानार्णव : एक विश्लेषण | १३७ उन्होंने दुनिवार काल का वर्णन करते हुए लिखा है "यह काल जिस प्रकार बालक को लोल जाता है, उसी प्रकार वृद्ध को भी अपना ग्रास बना लेता है, वह धनी एवं गरीब में कोई भेद नहीं करता। वह शूरवीर को भी, कायर को भी समान रूप से खा जाता है। जब यह काल विपक्षी के रूप में प्राणियों के समक्ष खड़ा होता है तो न गजवाहिनी, न अश्ववाहिनी तथा न रथवाहिनी सेनाएँ, न मन्त्र, न औषधियाँ, न पराक्रम ही कुछ काम प्राता है । ये सब व्यर्थ हो जाते हैं।" तीसरे सर्ग में ध्यान का संकेत रूप में वर्णन है। चौथे एवं पांचवें सर्ग में ध्यान तथा ध्याता का स्वरूप, योग्यता, आदि पर प्रकाश डाला गया है। छठे एवं सातवें सर्ग में सम्यक्दर्शन, सम्यज्ञान के वर्णन के साथ-साथ जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व प्रादि पर प्रकाश डाला है। पाठवें से सत्रहवें सर्ग तक अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह का विवेचन है। अठारहवें सर्ग में पांच समितियों तथा तीन गुप्तियों की व्याख्या है । उन्नीसवें सर्ग में क्रोध, मान, माया तथा लोभ-इन कषायों का वर्णन करते हुए, इनकी परिहेयता बतलाते हुए क्षमा, प्रशम तथा उपशम-भाव की प्रशंसा की गई है। बीसवें सर्ग में इन्द्रियजय, मनोजय का उपदेश है। इक्कीसवें सर्ग में शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व तथा कामतत्त्व का सूक्ष्म विवेचन है । इस सन्दर्भ में आत्मा सर्वशक्तिमान है, इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है-- "यह प्रात्मा साक्षात गुणरूपी रत्नों का महासागर है, सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, सर्वकल्याणकर है, परम ईश्वर है, निरंजन-किसी भी प्रकार के अंजन या कालिमा से रहित है, शुद्ध नय की दृष्टि से यह प्रात्मा का स्वरूप है।" वे आगे लिखते हैं "ध्यान से प्रात्मा के समग्र गुण प्रस्फुटित होते हैं तथा ध्यान से ही अनादि काल से संचित कर्मसमुदाय क्षीण होता है।"3 इसके पश्चात प्राचार्य ने शिवतत्त्व, गरुड़तत्त्व तथा कामतत्त्व का मार्मिक विश्लेषण किया है। उन्होंने कहा कि अन्य मतावलम्बी ध्यान के लिए एतद्रूप त्रितत्त्व की स्थापना करते हैं । वास्तव में तो जो भी कल्पना की जाय, वह सब आत्मा पर ही आधृत है। १. यथा बालं तथा वृद्धं यथाढ्यं दुर्विधं तथा । यथा शूरं तथा भीरु साम्येन अस्तेऽन्तकः ।। गजाश्वरथसैन्यानि मन्त्रौषधबलानि च । व्यर्थीभवन्ति सर्वाणि विपक्षे देहिनां यमे ॥ -ज्ञानार्णव २.११,१२ “अशरण-भावना" २. अयमात्मा स्वयं साक्षाद् गुणरत्नमहार्णवः । . सर्वज्ञः सर्वदृक् सार्वः परमेष्ठी निरंजनः ।। -ज्ञानार्णव २१.१ ३. ध्यानादेव गुणग्राममस्याशेषं स्फूटीभवेत् । क्षीयते च तथानादिसंभवा कर्मसन्ततिः ।। -ज्ञानार्णव २१.८ ४. शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मेव कीत्तितः । अणिमादिगुणानय रत्नवाधिबुधैर्मतः ।। -ज्ञानार्णव २१.९ आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15