Book Title: Gyan ke Pratyaksha aur Parkosha Bhedo ka Adhar
Author(s): Bansidhar Pandit
Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf

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Page 2
________________ ४ / दर्शन और न्याय : १५ प्रत्यक्षशब्दका अर्थ "अक्षं = आत्मानं प्रति" इस व्युत्पत्तिके अनुसार पदार्थकी आत्मावलम्बनतापूर्वक होतेवाला पदार्थज्ञान होता है और परोक्षशब्दका अर्थ "अक्षात् = आत्मनः परम्" इस व्युत्पत्तिके अनुसार पदार्थकी आत्मावलम्बनताके बिना ही होनेवाला पदार्थज्ञान होता है तथा यहाँपर जो पदार्थको आत्मावलम्बताका कथन किया गया है उसका अर्थ " आत्मप्रदेशों का हमारे ज्ञानके आधारभूत पदार्थके आकाररूप परिणत हो जाना" होता है बस, इसीको पदार्थका दर्शन या दार्शनोपयोग समझना चाहिए। यह पदार्थदर्शन कहींकहीं तो स्पर्शन, रसना, नासिका, नेत्र और कर्ण इन पाँच इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय द्वारा अथवा मन द्वारा यथासम्भव यथायोग्यरूपमें हुआ करता है और कहीं कहीं इन्द्रिय अथवा मनकी सहायताके बिना ही यथायोग्य रूप में हुआ करता है । इस तरह जैनागममें पदार्थदर्शनके चार भेद मान लिए गये हैं-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । नेत्र इन्द्रिय द्वारा पदार्थ के नियत आकारका नियत आत्मप्रदेशों में पहुँच जानेको चक्षुदर्शन, नेत्र इन्द्रियको छोड़कर शेष स्पर्शन, रसना, नासिका और कर्ण इन चारों इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय द्वारा अथवा मन द्वारा अपने-अपने अनुरूप पदार्थके नियत आकारोंका नियत आत्म-प्रदेशों में पहुँच जानेको अचक्षुदर्शन, इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता के बिना ही रूपवान् (पुद्गल) पदार्थ के आकारका नियत आत्मप्रदेशोंमें पहुँच जानेको अवधिदर्शन, तथा इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता के बिना ही विश्वके समस्त पदार्थोंके आकारोंका सर्व आत्मप्रदेशों में पहुँचनेको केवलदर्शन समझना चाहिये । नेत्र इन्द्रियसे होनेवाले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञानोंमें चक्षुदर्शनका सद्भाव कारण होता है, स्पर्शन, रसना, नासिका और कर्ण इन्द्रियोंमेंसे किसी भी इन्द्रिय अथवा मनसे होनेवाले अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा मतिज्ञानों में उस उस इन्द्रिय अथवा मनके द्वारा होनेवाले अचक्षुदर्शनका सद्भाव कारण होता है तथा अवधिज्ञानमें अवधिदर्शनका और केवलज्ञान में केवलदर्शनका सद्भाव कारण होता है । मनःपर्ययज्ञानमें भी मानसिक अचक्षुदर्शनका सद्भाव कारण होता है । ज्ञान इस प्रकार अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान तो सर्वथा प्रत्यक्ष हैं अर्थात् इन्द्रिय अथवा मनकी सहायता के बिना ही उत्पन्न होनेके कारण ये तीनों ज्ञान चूँकि स्वाधीन ज्ञान हैं अतः करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे प्रत्यक्ष हैं और चूँकि ये तीनों ज्ञान उक्त प्रकारके पदार्थ दर्शन के सद्भावमें ही उत्पन्न होते हैं अतः स्वरूपका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे भी ये प्रत्यक्ष ही हैं । तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान ये चारों मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये सब सर्वथा परोक्ष हैं अर्थात् यथासम्भव इन्द्रिय और मनकी सहायतासे उत्पन्न होनेसे कारण चूँकि ये पराधीन हैं अतः करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से परोक्ष हैं और चूँकि ये ज्ञान उक्त प्रकार के पदार्थदर्शनके बिना ही उत्पन्न हो जाया करते हैं अतः स्वरूपका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे भी ये परोक्ष ही हैं । लेकिन अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों मतिज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष माने गये हैं अर्थात् ये चारों ज्ञान चुँकि उक्त प्रकारके चक्षुदर्शन अथवा अचक्षुदर्शन रूप पदार्थ दर्शन के सद्भावमें ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए स्वरूपका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोगकी दृष्टिसे तो ये प्रत्यक्ष हैं और चूँकि ये इन्द्रिय अथवा मनकी सहायतासे ही उत्पन्न हुआ करते हैं अत: करणानुयोगकी विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टिसे ये परोक्ष भी हैं। इस कथन के साथ जैनागम के पूर्वोक्त इस कथनका भी सामञ्जस्य बैठ जाता है कि अवधि मन:पर्यय और केवलज्ञान सर्वथा प्रत्यक्ष हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क और अनुमान सर्वथा परोक्ष हैं तथा अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान कथंचित् प्रत्यक्ष और कथंचित् परोक्ष हैं । शंका --- केवलज्ञान ही ऐसा ज्ञान है जो दर्शनके सद्भावमें हुआ करता है। शेष ज्ञान तो दर्शनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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