Book Title: Gyan ke Pratyaksha aur Parkosha Bhedo ka Adhar Author(s): Bansidhar Pandit Publisher: Z_Bansidhar_Pandit_Abhinandan_Granth_012047.pdf View full book textPage 6
________________ 4 / दर्शन और न्याय : 19 उत्तर-ईहा आदि ज्ञान अवग्रहादि ज्ञानपूर्वक होते हैं, इसका आशय इतना ही है कि ईहा आदि ज्ञान अवग्रह आदि ज्ञानोंके उत्पन्न होनेके बाद हुआ करते हैं / परन्तु जिस कालमें ईहा आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं उस कालमें आत्माके दर्शनगुणका अर्थाकाररूप व्यापार ही इनमें कारण होता है, अतः इन सबको प्रत्यक्ष ज्ञानोंकी कोटिमें ग्रहण किया गया है / - शंका-जब कि प्रत्येक जीवमें दर्शन और ज्ञान गुणका कुछ-न-कुछ विकास सर्वदा पाया जाता है तो क्या विग्रहगतिमें भी अल्पज्ञ जीवोंके किसी-न-किसी रूप में पदार्थोंका दर्शन और ज्ञान स्वीकार करना चाहिए या नहीं? उत्तर-विग्रहगतिमें अल्पज्ञ जीवोंके इन्द्रियादि निमित्तोंका अभाव होनेके कारण दर्शन और ज्ञान दोनों गुणोंका कुछ भी व्यापार नहीं होता है, उस समय ये केवल अपने विकसित रूपमें ही अवस्थित रहते हैं। शंका-जिस प्रकार अल्पज्ञ जीवोंके विग्रहगतिमें देखने और जानने रूप योग्यताओंका सद्भाव रहते हुए भी पदार्थोंका देखना और जानना नहीं होता है उसी प्रकार उनके (अल्पज्ञ जीवोंके) देखनेरूप व्यापारके समय जाननेरूप योग्यताका और जाननेरूप व्यपारके समय देखनेरूप योग्यताका व्यापाररहित (लब्धिरूपसे) सद्भाव माननेमें क्या अपत्ति है ? उत्तर-विग्रहगतिमें इन्द्रियादि निमित्तोंका अभाव पाया जानेके कारण ही अल्पज्ञ जीवोंमें देखने और जाननेकी योग्यताएँ लब्धिरूपसे विद्यमान रहती हैं। लेकिन चूंकि पर्याप्त अवस्थामें इन्द्रियादि निमित्तोंका सद्भाव अल्पज्ञ जीवोंके पाया जाता है। अतः उपादान और निमित्त दोनों कारणोंके सद्भावमें दोनों योग्यताओंके व्यापारका अर्थात् दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोगका एक ही साथ सद्भाव मानना अनिवार्य हो जाता है / RAIPUR Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6