Book Title: Guru ka Adhyatmik Swarup Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 2
________________ | 54 | जिनवाणी || 10 जनवरी 2011 || पाना है, कल्याण होना है। जहाँ परिपूर्णता है, लेशमात्र भी अभाव नहीं है वहाँ पूर्ण कल्याण है। अभाव का सर्वांश में क्षय होना ही कल्याण है। अभाव से सर्वांश में वह ही मुक्त होता है जो तृष्णा से, कामना से रहित है। तृष्णा से रहित होना ही समस्त दोषों, दुःखों, राग, द्वेष, मोह, अस्मिता, अभिनिवेश आदि क्लेशों से मुक्ति पाना है; यह निर्वाण है। इसे ही वास्तविक कल्याण कहा जा सकता है। जो स्वयं धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधा, सत्कार-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा आदि चाहता है वह दूसरों का कल्याण नहीं कर सकता। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' के अनुसार सर्वप्रथम सम्यक् ज्ञान होना आवश्यक है। सम्यक् ज्ञान के विपरीत मिथ्याज्ञान है। मिथ्याज्ञान रूप मिथ्यात्व ही समस्त दोषों एवं दुःखों का कारण है। मिथ्यात्व का मूल है - विषय सुखों का भोग। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन एवं मन के विषय शब्द, रूप, गंध, स्वाद, स्पर्श आदि की अनुकूलता को सुख मानना एवं उस सुख तथा सुख की सामग्री के पदार्थों को नित्य, सुन्दर और अपना मानना ही मिथ्याज्ञान है। कारण कि सभी इन्द्रियजन्य सुख, भोग एवं भोग्य सामग्री प्रतिक्षण क्षीण होकर नष्ट हो जाती है। अतः नश्वर है, अनित्य है, क्षणिक है, विनाशी है। अपने से अलग हो जाने के कारण वह अपने से भिन्न है, पर है, अनित्य है। उनका सुंदरत्व-शुभत्व भी असुंदरत्व-अशुचित्व में बदल जाता है। विषय एवं विषय-सुखों की सामग्री अनित्य, अनात्म एवं अशुचिमय है एवं दुःख रूप है। इसे स्थायी, सुंदर, सुखस्वरूप मानना मिथ्यात्व है। ज्ञान के अनुरूप आचरण न होना, ज्ञान का अनादर है, ज्ञानावरण है। मिथ्यात्व अथवा ज्ञानावरण ही समस्त दोषों, पापों एवं दुःखों का कारण है। ज्ञानावरण कर्म का हेतु ज्ञान का अनादर ही, ज्ञान के विपरीत आचरण करना ही दर्शनावरण आदि समस्त कर्मों के बंधन का हेतु है। इसीलिए आठों कर्मों में इसे सर्वप्रथम स्थान दिया गया है। समस्त दोषों (पापों), कर्मों एवं दुःखों से मुक्त होने के लिए ज्ञानावरण का क्षय अनिवार्य है। ज्ञानावरण के क्षय के लिए ज्ञान का आदर अनिवार्य है। जिससे ज्ञान का आदर करने की, मिथ्याज्ञान एवं अज्ञान को दूर करने की प्रेरणा जगे, वह ही गुरु है। वास्तविक ज्ञान का आदर न करने से व्यक्ति अपने निज स्वरूप से विमुख होता है। जो मानव विषय-सुख क्षणिक, नश्वर तथा दुःख को उत्पन्न करने वाला है'- अपने इस निज ज्ञान का आदर नहीं कर पाता; वह सद्गुरु तथा सद्ग्रन्थ आदि के ज्ञान का भी आदर नहीं कर पाता। निजज्ञान (विवेक), सद्गुरु एवं सद्ग्रन्थ आदि के ज्ञान में एकता है, भिन्नता नहीं। ज्ञान किसी भाषा में आबद्ध नहीं है। भाषा तो जाने हुए ज्ञान के प्रकाशन का माध्यम एवं संकेत मात्र है। अतः किसी भाषा के अर्थ को अपनाने के लिए उस भाषा में निहित अर्थ का प्रभाव अत्यन्त आवश्यक है। यदि किसी ग्रन्थ एवं गुरु की भाषा से वास्तविक ज्ञान का बोध (अनुभव) होता, तो एक ही ग्रन्थ एवं गुरुवाणी के शब्दों के अर्थ में भिन्नता नहीं होती, उसमें मतभेद नहीं होता, मन पर समान प्रभाव पड़ता, परन्तु ऐसा नहीं होता है। आशय यह है कि शब्द कल्प-वृक्ष के समान हैं। इस कारण निज अनुभव के ज्ञान अर्थात् सम्यक् ज्ञान की प्रभा होने पर ही सद्ग्रन्थ या सद्गुरु की वाणी के वास्तविक अर्थ की अभिव्यक्ति होती है। उस अभिव्यक्ति या अनुभूति के प्रभाव से दोष स्वतः निवृत्त होते हैं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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