Book Title: Guru ka Adhyatmik Swarup Author(s): Kanhaiyalal Lodha Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf View full book textPage 1
________________ 10 जनवरी 2011 जिनवाणी 53 'गुरु' का आध्यात्मिक स्वरूप श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा गुरु कोई व्यक्ति नहीं, अपितु यह एक तत्त्व है जो ज्ञानादि गुणों के रूप में प्रत्येक व्यक्ति में रहकर उसे प्रकाशित करता है। ज्ञानादि गुण जिसमें होते हैं उसे हम उपचार से गुरु कहते हैं। वह गुरु व्यक्ति के दोषों को दूर करने के लिए तत्पर होता है तथा स्वयं निरभिमान रहता है। वैषयिक सुखों के भोग की इच्छा अज्ञान की द्योतक है । ज्ञान हमें अनित्य, अनात्म, अशुचि एवं दुःख का बोध कराता है एवं यही ज्ञानस्वरूप गुरु प्रत्येक व्यक्ति के लिए कल्याणकारी होता है। गुरु के इस प्रकार के स्वरूप का प्रतिपादन प्रस्तुत आलेख का वैशिष्ट्य है।-सम्पादक गुरुगीता में कहा है गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकास्तेज उच्यते। अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः।। अर्थात् 'गु' नाम अन्धकार का है और 'रु' नाम प्रकाश का है। अतः जो अज्ञान रूपी अन्धकार मिटाने का मार्गदर्शन करे, ज्ञान दे, वह गुरु है। अतः ज्ञान ही गुरुतत्त्व है, व्यक्ति नहीं। इसीलिए गुण पूजनीय है, व्यक्ति पूजनीय नहीं। ज्ञान वही दे सकता है, जो ज्ञान वाला है, जिसका अज्ञानान्धकार मिट गया है। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं है, अपितु विपरीत ज्ञान है। ज्ञान और विवेक में अज्ञान-अन्धकार को दूर करने का सामर्थ्य होता है, अतः ये गुरु हैं। विवेक सभी को स्वतः प्राप्त होता है, क्योंकि यह किसी कर्म का फल नहीं है। नित्यत्व, प्रेम, सुख, सुन्दरत्व में प्रियता एवं द्वेष, दुःख और अशुद्धि में अप्रियता का ज्ञान सभी प्राणियों में स्वाभाविक रूप से होता है। इस प्रकार ज्ञान और विवेक प्राणी को स्वतः प्राप्त हैं। इसके बावजूद इन्द्रिय व मन के विषय-सुख के भोगों में आबद्ध होने से वह उसे स्वयं प्राप्त नहीं कर पाता। फलस्वरूप जो महापुरुष धर्म, स्वभाव और लक्ष्य की ओर ले जाता है अथवा उस महान् लक्ष्य की प्रेरणा देता है, वह 'गुरु' शब्द से व्यवहृत होता है। जिससे राग-द्वेष मिटे, वह ज्ञान वास्तविक है। जो ऐसा ज्ञान देता है, वीतराग होने का मार्गदर्शन कराता है, वह आध्यात्मिक शिक्षा देने वाला आध्यात्मिक गुरु है। वह शिष्य को दोषों के निवारण का उपाय बताता है। दोषों के निवारण का उपाय वह ही बता सकता है, जो स्वयं निर्दोष है। जो स्वयं दोषी है, वह दोष दूर करने का ज्ञान देता है, किन्तु उसका प्रभाव नहीं होता है। दोष का मिटना ही गुण प्रकट होना है, दुःख से मुक्ति Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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