Book Title: Guru Mahima ka Chor Nahi
Author(s): Abhilasha Hiravat
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 3
________________ || 10 जनवरी 2011 | | जिनवाणी 113 सत्य ही है, गुरु की कृपा निराश हताश में भी नई आशा का संचार करती है साथ ही चलने की शक्ति भी प्रदान करती है । बाहर के भटकाव को रोकने के लिए, मोक्ष लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, सुगुरु के मार्गदर्शन रूपी मशाल का होना अति आवश्यक है। गुरु मिथ्यात्व के सघन गहन अंधकार को हटाकर हममें ज्ञान का प्रकाश भर देते हैं । सुगुरु जीवन्त तीर्थ हैं। उनके सान्निध्य से, मार्ग दर्शन से, उनकी अनुपम कृपा से सभी विकार विभावस्वतः ही दूर होने लगते हैं। जरूरत है गुरु चरणों में पूरी तरह समर्पित होने की। श्रद्धा समर्पण माँगती है। गुरु-भक्ति गुरु के अलौकिक गुणों के समीप लाने वाली शक्ति है । वह किसी सन्त विशेष का मोह नहीं, अपितु गुणी व्यक्तित्व का बहुमान है। भावों की विशुद्धिपूर्वक पूज्य पुरुषों के प्रति जो अनुराग है वही तो भक्ति कहलाती है। गुरु की भक्ति तो गंगा के समान है जिसमें कोई डूब जाए, लीन हो जाए तो उसका तन, मन और सारा जीवन पवित्र हो जाता है। पहले गुरु की आकृति काम आती है, फिर गुरु की प्रकृति आती है, क्योंकि आचार से प्रचार स्वयं होता है, आचरण स्वयं प्रेरणा देता है। सच्चे गुरु सिर्फ अपनी वाणी से ही शिष्यों को शिक्षा नहीं देते, अपितु अपने जीवन से भी मूक शिक्षा देते हैं। शिष्य उनकी वाणी से आध्यात्मिक या पारमार्थिक शिक्षा प्राप्त करता हुआ उनके जीवन से निर्लोभता, निःस्वार्थता, नैतिकता, सदाचार, चारित्र-निर्माण आदि कलाओं की शिक्षा प्राप्त करता चला जाता है। जैसे गुलाब की वाटिका में लोग सुगन्ध की याचना नहीं करते, वह स्वयं ही मिल जाती है, वैसे ही गुरु के चरणों में समर्पित होने के बाद कुछ माँगना शेष नहीं रहता। कल्पवृक्ष रूपी गुरु से प्राप्ति स्वतः होती रहती है। परम श्रद्धेय श्री प्रमोदमुनि जी म.सा. फरमाते हैं "समर्पण की कोई भाषा नहीं, समर्पण में कोई अभिलाषा नहीं। मैं कुछ नहीं मेरा कुछ नहीं, गुरु के चरणों में विलीन हो गए।" श्रद्धा को शब्दों की जरूरत नहीं पड़ती। समर्पण में कोलाहल नहीं होता । गुरु-भक्ति में विनीत भाव का दर्शन होता है, आडम्बर का नहीं। गुरुजनों के सदा निकट रहना उनकी उपासना है। परन्तु निकट रहने का मतलब यह नहीं है कि हमेशा उनके पास बैठे रहो। अपने अन्तरंग में उन्हें अपने निकट महसूस करना ही सच्ची निकटता है। जो गुरु की आज्ञा में है वह गुरु के निकट, गुरु के हृदय में होता है, भले ही वह शरीर से दूर ही क्यों न हो।जो गुरु की आज्ञा में नहीं है वह गुरु के समीप हो कर भी उनसे दूर होता है। महान आत्माओं का दर्शन, वन्दन या उनकी भक्ति करते समय यह बात ध्यान में रहनी चाहिए कि 'वन्दे तद्गुणलब्धये' । मेरे दर्शन-वन्दन का उद्देश्य महान् आत्माओं के समान गुणों की प्राप्ति करने का है। गुरुमुख एवं गुरुकृपा से सीखा हुआ ज्ञान ही जीवन में उपयोगी हो सकता है, क्योंकि पोथी से ज्ञान नहीं मात्र जानकारी मिलती है। गुरु पराश्रय परावलम्बन को छुड़ाकर निरालम्ब कर देते हैं । सुगुरु शिष्य को स्वयं के दुःख दूर करना ही नहीं सिखाते, बल्कि पर-पीड़ा को दूर करने के उपाय भी सिखलाते हैं। गुरु-शिष्य-दर्पण में गुरु के लिए लिखा है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4