Book Title: Guru Ek ya Anek Naydrushti
Author(s): Pramodmuni
Publisher: Z_Jinvani_Guru_Garima_evam_Shraman_Jivan_Visheshank_003844.pdf

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Page 4
________________ 48 जिनवाणी 10 जनवरी 2011 उपयोग लगा हो वह गुरु एक ही हो सकता है । सामायिक करते समय उसे एक ही गुरु का चिन्तन आयेगा । अपेक्षा से 27 गुणों पर भी उपयोग लग सकता है, पर वहाँ कहा गया कि गुरु के प्रति समर्पण के भाव साथ अपनी सारी वृत्ति उनकी आज्ञा के पारतन्त्र्यपूर्वक करने पर ही अपने अहंकार से छुटकारा पाकर कोई सच्चा साधक बन सकता है। आवश्यकसूत्र में बड़ी संलेखना में भी आता ही है- “ अपने धर्माचार्य को वंदना करके" वहाँ जीवन का अंतिम प्रत्याख्यान करते समय भी विशिष्ट उपकारी गुरु कोही वंदन हेतु कहा गया, शेष साधु-साध्वियों से क्षमायाचना का उल्लेख किया गया। औपपातिकसूत्र में सिद्ध परमात्मा अरिहंत भगवंत, श्रमण भगवंत महावीर स्वामी के पश्चात् अम्बड़ जी के 700 शिष्यों ने- अपने धर्माचार्य, धर्मोपदेशक अम्बड़ जी को, राजप्रश्नीय में श्रमणोपासक परदेसी राजा ने अपने धर्मोपदेशक धर्माचार्य केशीकुमार श्रमण को संथारे के पूर्व स्तुतिपूर्वक वंदन किया है। जितशत्रु राजा और सुबुद्धि प्रधान का कथानक ज्ञातासूत्रकथा के बारहवें अध्ययन में शिक्षा दे रहा है "मिच्छत्तमोहियमणा पावपसत्तावि पाणिणो विगुणा । फरिहोदगं व गुणिणो, हवंति वरगुरुपसायाओ ॥ अर्थात्- गंदे पानी के नाले का कुत्सित जल सुबुद्धि प्रधान के प्रयोग से स्वच्छ, सुपाच्य, सुगंधित, प्रशंसनीय बन गया, वैसे ही श्रेष्ठ गुरु की कृपा से मिथ्यात्व से मोहित मन वाला, पाप प्रसक्त, गुणहीन गुणी बन जाता है, अर्थात् सम्यक्त्वी बन जाता है। इसके अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं। ऐसा कृपालु गुरु एक ही हो सकता है। श्रेणिक राजा के लिए अनाथी भी ऐसे ही गुरु हैं। गुण पर दृष्टि की अपेक्षा सारे साधु गुरु कह दिये गये, वहीं विशेष उपकार की अपेक्षा, साधना के दिशा-दर्शन की अपेक्षा एक ही गुरु हो सकता है । प्रायश्चित्त, आलोचना, अध्ययन-क्रम, विचरण - विहार, चातुर्मास-निर्णय, स्वयं के व्यक्तित्व-विकास एवं साधना में आगे बढ़ने के लिए एक गुरु का होना आवश्यक है। तीर्थंकर भगवान की विद्यमानता में अलग-अलग गण, अलग-अलग गणधर किस बात के प्रतीक हैं? गणधर गौतम के अन्तगड के दृष्टान्त गणधर सुधर्मा के अन्तगड में होने अनिवार्य नहीं । गणधर अग्निभूति के विपाकसूत्र के दृष्टान्त गणधर वायुभूति जी के समान होना अनिवार्य नहीं- इनके पाँच-पाँच सौ शिष्य अपने-अपने गुरु की वाचना से ही स्वाध्याय करते थे। अब कोई श्रावक किसी गणधर की वाचना को अन्तगड से या विपाकसूत्र से उन्हीं के मुखारविन्द से सुनकर, उन्हें गुरु मानकर उनका अनुसरण करता है - तो क्या उसके वाचनाचार्य रूपी गुरु एक नहीं होंगे? इसी अपेक्षा गुरु भगवन्त फरमाते थे, संघनायक आज भी फरमाते हैं- 'गुरु एक - सेवा अनेक' । दौर्भाग्य से श्रमण आज बँटते जा रहें हैं, और इस बँटवारे में हमें दूसरे की बातें गलत ही नज़र आती हैं। जिनशासन में नय की महिमा है, अपेक्षा की महिमा है । उदारता, सरलता के धनी पूज्य हस्तीमलजी म.सा. ने अपने जीवन में एक-एक परम्परा को सहकार दिया, अपने समर्पित श्रावकों को Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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