Book Title: Gujrat me Rachit Katipay Digambar Jain Granth Author(s): Bhogilal J Sandesara Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 4
________________ गुजरात में रचित कतिपय दिगम्बर जैन ग्रन्थ ११६ हेमराज नामक श्रावक की विनती से नवगांवपुर में लिखी गई ।" इस नवगांवपुर का स्थान निश्चितरूप से स्थापित किया नहीं जा सकता। यशःकीर्ति गुणकीति के शिष्य थे । तीर्थंकर चन्द्रप्रभ की जीवनी का प्रालेखन करने वाली उनकी दूसरी अपभ्रंश कृति हैं चदप्पहचरिउ । इसकी सं० १५७१ में लिखी हुई १५० पत्र की एक पाण्डुलिपि मेरे मित्र पं० अमृतलाल मोहनलाल ने मुझे दी थी । 'चंदप्पहचरिउ' में रचनावर्ष नहीं दिया है, तथापि उसको 'पाण्डवपुराण' के रचनाकाल के ग्ररसे में रख दिया जा सकता है, 'चंदप्पहचरिउ' का गन्धाग्र २३०८ श्लोकों का है । उसमें कर्त्ता ने जो उल्लेख किया है उसके अनुसार हुंबड जाति के कुमारसिंह के पुत्र सिद्धपाल की विनती मे गुर्जर देश में उम्मत्त गाँव में उसकी रचना हुई । उम्मत्त गांव उत्तरगुजरात में स्थित वडनगर के समीप का उमता गांव होगा। 'पाण्डवपुराण' की रचना जिस स्थान में हुई उस नवगांवपुर का भी गुजरात में होना असम्भव नहीं है, तथापि इसके लिये स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है । मेरे पास की पाण्डुलिपि में से 'चंदप्पहचरिउ' के प्रादि-अन्त में से ऐतिहासिक दृष्ट्या महत्वपूर्ण भाग यहां रखता हूं। श्रादि 'हुंवडकुल नहयलि पुप्फयंत बहुदेउ कुमरसिंह वि महत । तह सुउ रिगम्मल गुररागरण विसालु सुप्रसिद्ध पभणइ सिद्धपालु | जसकित्ति विवह करि तुहुं पसाउ मह पूरइ पाइकन्त्रभाउ । तं णिमुणिवि सो भासेइ मंदु पंगलु तोड़ेसइ केम चंदु ।' अन्त गुज्जरदेह उम्मत्तगामु तर्हि छड्डासुर हुउ दोणा । सिद्धउ तहो गंदर भव्वबन्धु जिरणधम्म भारि जं दिष्णु खधु । तसु सुठ्ठि बहुदेउ भन्नु जिं धम्मकज्जि विव कलिउ दब्बु । तहो लहु जायउ सिरिकुमरसिंह कलिकालकरिदहु हणणसिंह । तसु सु संजाय सिद्धपालु जिरगपुज्जदारणगुणगणरसालु । तो उवरोहें इह कियउ गंथु हउण मुरणमि किंपि वि सत्यगं । धत्ता | जा चंददिवायर सव्व वि सायर जा कुलपव्वय भूवलउ । ता हु पयट्टर हियई चहुट्टइ ( उ ) सरसइदेविहिं मुहनिलउ । सिरिचंद पहचरिए महाकइजसकित्तिविरइए महाभव्वसिद्धपाल सवरणभूसरण सिरिचंदप्यह सामिणिव्वाणगणरणाम एयारहमो संधी समत्तो ॥ ' इस पाण्डुलिपि का हस्तलेख सौराष्ट्र के पूर्वतट पर के ऐतिहासिक नगर घोधा में हुआ था । उसकी पुष्पिका इस तरह है: Jain Education International १. कस्तूरचन्द कासलीवाल, 'प्रशस्तिसंग्रह', जयपुर १६५०, प्रस्तावना, पृ० १५ । हस्तप्रतविषयक टिप्पण के लिए देखिये पृ० १२२-२७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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