Book Title: Gopadro Devpatane
Author(s): Hariharinivas Dwivedi
Publisher: Z_Tirthankar_Mahavir_Smruti_Granth_012001.pdf

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Page 6
________________ अन्तःसलिला के समान जैन मुनि अपना प्रचार करते पर अधिकार कर लिया था और दिल्ली के सुल्तान रहे। परन्तु इस क्षेत्र का गुलाम सुल्तानों द्वारा विजित नासिरुद्दीन को पराजित कर अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित किया जाना सभी भारतमूलीय धर्म साधनाओं के लिए कर ली थी। इस घटना के पूर्व ग्वालियर क्षेत्र में जैन घातक सिद्ध हुआ था। इल्तुतमिश ने आम के प्रसिद्ध धर्म के विकास के कुछ बिखरे हुए प्रमाण ही उपलब्ध महावीर मन्दिर को भी ध्वस्त कर डाला और उसे हुए हैं। इस क्षेत्र में सन् 1400 ई. के पूर्व का न तो मस्जिद बना दिया। ___ कोई जैन ग्रन्थ ही उपलब्ध हुआ है और न जैन मुनियों एवं श्रावकों की गतिविधियों की कोई जानकारी ही इसी बीच जैन धर्म नरवर में विकास कर रहा प्राप्त हुई है। कुछ मूर्तियों एवं शिलालेखों से यह ज्ञात था। जैन धर्म की नरवर में वास्तविक उन्नति जज्ज होता है कि इस क्षेत्र में जब-जब किसी स्थानीय शक्ति पेल्ल वंश के समय में हुई है। चाहडदेव से गणपतिदेव ने तुर्क सुल्तानों के वर्चस्व से सम्पूर्ण या आंशिक प्राण (सन् 1247-1298 ई.) तक यह राजवंश नरवर पर प्राप्त किया तभी भारतमूलीय धर्मों के अनुयायियों ने राज्य करता रहा; उन राजाओं के राज्यकाल में अपने आराधना स्थलों का निर्माण या पुनर्निर्माण प्रारंभ नरवर में जैन धर्म का बहुत अधिक विकास हुआ । कर दिया। यह भी सुनिश्चित रूप से कहा जा सकता वि. सं. 1314 (सन् 1257 ई.) से वि. सं. 1324 है कि हिन्दू तथा जैन धर्मों के अनुयायी, दोनों बिना (सन् 1267 ई.) के बीच निर्मित सैकड़ों जैन मूर्तियाँ किसी झगड़े के साथ-साथ अपने मार्ग अपनाते रहे । नरवर में प्राप्त हुई हैं11 नरवर के इन राजाओं के परन्तु मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण मात्र धार्मिक शिलालेखों के अधिकांश पाठ जैन साधुओं द्वारा चिन्तन के स्वरूप पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त विरचित हैं। नहीं है। इन मूर्तियों को प्रश्रय देनेवाले मन्दिर इसी बीच कभी स्वर्णगिरि क्षेत्र में भी जैनपट्ट सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के प्रश्रय के प्रमुख स्थल होते थे। स्थापित हो गया था। रइधू ने सम्मइचरित में स्वर्ण- दुर्भाग्य से जो-कुछ अवशिष्ट है वह उस धर्मसाधना का गिरि के काष्ठासंघ के भट्टारकों की वंश परम्परा दी बाह्य रूप ही है, उसकी आत्मा हमें उपलब्ध नहीं हो है। उसमें दुबकूण्डवाले देवसेन को प्रथम भट्टारक प्रथम भट्टारक सकी है। उस समय के समस्त मन्दिर तथा उनमें बतलाया है । सन् 1411 ई. के पूर्व इस पट्ट पर विरचित साहित्य कालगति अथवा मानव द्वारा नष्ट देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन तथा सहस्रकीर्ति पट्टासीन कर दिए गए और वे प्रमाण अनुपलब्ध हो गए हो चुके थे। अगले भट्टारक गुण कीर्ति (सन् 1411 जिनसे उस युग के चिन्तन के स्वरूप को जाना जा 1429 ई.) ने अपना पट्ट ग्वालियर में स्थानान्तरित सकता। परन्तु यह मानना भूल होगी कि उस समय कर लिया था और यहीं से स्वर्णगिरि तथा नरवर के के इस क्षेत्र के जैन साहित्य का अब अस्तित्व है ही जैन संघों का नियंत्रण होने लगा था। नहीं । स्वर्णगिरि, नरवर, ग्वालियर, मगरौनी, झांसी चम्बल के किनारे स्थित ऐसाह के छोटे-से तोमर आदि के जैन मन्दिरों के ज्ञान भण्डारों में हजारों ग्रन्थ जागीरदार वीरसिंहदेव ने सन् 1394 ई. में गोपाचलगढ़ अभी भी सुरक्षित हैं, जिनकी प्रति वर्ष घूपदीप देकर 11, नरवर और शिवपुरी क्षेत्र में वि. सं. 1206 (1149 ई.) से ही जैन मूर्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। देखिये, द्विवेदी, ग्वालियर राज्य के अभिलेख क्र. 72, 73, 74,76, 77 तथा 84 । 12. द्विवेदी, तोमरों का इतिहास, द्वितीय भाग, पृ. 28-29 । ३३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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