Book Title: Gnata Dharmkatha ki Sanskrutik Virasat
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 2
________________ ज्ञाताधर्मकथा की सांस्कृतिक विरासत- रूपक है। सातवें अध्ययन की रोहिणी कथा पांच व्रतों की रक्षा और वृद्धि को रूपक द्वारा प्रस्तुत करती है। उदकजात नामक कथा संक्षिप्त है। किन्तु इसमें जल-शुद्धि की प्रक्रिया द्वारा एक ही पदार्थ के शुभ एवं अशुभ दोनों रूपों को प्रकट किया गया है । अनेकान्त के सिद्धान्त को समझाने के लिए यह बहुत उपयोगी है। नन्दीफल की कथा यद्यपि अर्ध कथा है, किन्तु इसमें रूपक की प्रधानता है। समुद्री अश्वों के रूपक द्वारा लुभावने विषयों के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। छठे अध्ययन में कर्मवाद जैसे गुरु गंभीर विषय को रूपक के द्वारा स्पष्ट किया गया है। गणधर गौतम की जिज्ञासा के समाधान में भगवान ने तूबे के उदाहरण से इस बात पर प्रकाश डाला कि मिट्टी के लेप से भारी बना हुआ तूंबा जल में मग्न हो जाता है और लेप हटने से वह पुन: तैरने लगता है। वैसे ही कर्मों के लेप से आत्मा भारी बनकर संसार सागर में डूबता है और उस लेप से मुक्त होकर ऊर्ध्वगति करता है। दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से प्रतिपादित किया है कि जैसे कृष्णपक्ष में चन्द्र की चारु चन्द्रिका मंद और मंदतर होती जाती हैं और शुक्ल पक्ष में वही चन्द्रिका अभिवृद्धि को प्राप्त होती है वैसे ही चन्द्र के सदृश कर्मों की अधिकता से आत्मा की ज्योति मंद होती है और कर्म की ज्यों-ज्यों न्यूनता होती है त्यों-त्यों उसकी ज्योति अधिकाधिक जगमगाने लगती है। ज्ञाताधर्मकथा पशुकथाओं के लिए भी उद्गम ग्रन्थ माना जा सकता हैं। इस एक ही ग्रन्थ में हाथी, अश्व, खरगोश, कछुए, मयूर, मेंढक, सियार आदि को कथाओं के पात्रों के रूप में चित्रित किया गया है। मेरुप्रभ हाथी ने अहिंसा का जो उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह भारतीय कथा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । ज्ञाताधर्मकथा के द्वितीय श्रुतस्कंध में यद्यपि २०६ साध्वियों की कथाएँ हैं, किन्तु उनके ढांचे, नाम, उपदेश आदि एक से हैं। केवल काली की कथा पूर्ण कथा है। नारी कथा की दृष्टि से यह कथा महत्त्वपूर्ण है ।' ज्ञाताधर्मकथा में भारतीय संस्कृति के विभिन्न पक्ष अंकित हुए हैं। प्राचीन भारतीय भाषाओं, काव्यात्मक प्रयोगों, विभिन्न कलाओं और विद्याओं, सामाजिक जीवन और वाणिज्य व्यापार आदि के संबंध में इस ग्रन्थ में ऐसे विवरण उपलब्ध हैं जो प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास में अभिनव प्रकाश डालते हैं। इस ग्रन्थ के सूक्ष्म सांस्कृतिक अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है। कुछ विद्वानों ने इस दिशा में कार्य भी किया है, जो आगे के अध्ययन के लिए सहायक हो सकता है। यहाँ संक्षेप में ग्रन्थ में अंकित कतिपय सांस्कृतिक बिन्दुओं को उजागर करने का प्रयत्न है। भाषा और लिपि इस ग्रन्थ में प्रमुख रूप से अर्धमागधी प्राकृत का प्रयोग हुआ है। किन्तु साथ ही अन्य प्राकृतों के तत्त्व भी इसमें उपलब्ध हैं। देशी शब्दों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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