Book Title: Enlightened Vision of the Self Author(s): Akalankadev, Devendra K Goyal Publisher: Radiant Publishers New DelhiPage 98
________________ 86 THE ENLIGHTENED VISION OF THE SELF मोक्षेऽपि यस्य नाकांक्षा स मोक्षमधिगच्छति । इत्युक्तत्वाद्वितान्वेषी कांक्षां ने क्वापि योजयेत् ॥ 21 ॥ खण्डान्वयः यस्य- जिस व्यक्ति की, मोक्षेऽपि = मोक्षविषयक भी, आकांक्षा-इच्छा, न=नहीं है, स= वही, मोक्षम् = मोक्ष को, अधिगच्छति समझता या प्राप्त करता है, इति ऐसा, उक्तत्वात्=कहा गया होने से, हितान्वेषी - हित की खोज में लगे हुए व्यक्ति को, क्वापि = किसी भी विषय में, कांक्षां= आकांक्षा, न योजयेत् =नहीं करनी चाहिए । makshepi yasya nakanksha sa mokshamadhigachati. ityuk tatuaduitareshi kanksham na kupi yjayet. (21) When the desire to attain moksha fades away or disappears from the heart of a sage or a mahatma, then only he can achieve salvation. Keeping in view the aforesaid principle, people who are desirous to uplift their own Self, should give up their desire for all things. स्वं परञ्चेति वस्त्वित्थं वस्तुरूपेण चिन्तय । उपेक्षाभावनोत्कर्ष- पर्यंते शिवमाप्नुहि ।। 22 ।। खण्डान्वयः स्वं परञ्चेति = अपनी और परायी ऐसी (समस्त), वस्तु वस्तुओं को, वस्तुरूपेण=(जो वस्तु जैसी है, उसी) वस्तुरूप से, चिन्तय- विचार करो ( और फिर ) इत्थम् = इस प्रकार ( विचार होने पर), उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते = उपेक्षा रूप माध्यस्थ भावना का चरम उत्कर्ष प्राप्त होने पर, शिवं मोक्ष को प्राप्नुहि = प्राप्त करो ( प्राप्त कर सकोगे - ऐसा भाव है ) । suam paranceti vastuttham vasturupena cintaya. upekshabhaumotkarsha-paryate shivmapmubi. (22) Think and try to evaluate the actual state of things which are yours (connected with the Soul) and which belong to others (external objects). This should be done in a detached and unperturbed way. This process is termed as param madhyastha bhaana state of equanimity or upeksha bhara - equanimous attitude. When this attitude of equanimity reaches its zenith then only one can hope to attain moksha. Jain Education International For Private & Personal Use Only — www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132