Book Title: Dwait Adwait ka Samanvay Author(s): Anandswarup Gupt Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 7
________________ शनैः-शनैः ऊपर उठता है। मनुष्यके लिए वेदका अमर आदेश है "उद्यानं ते पुरुष नावयानम्" (अथर्ववेद ८-१-६) "हे पुरुष, तेरा निरन्तर उद्यान, (ऊर्ध्वगमन), हो, अवयान (अधोगमन, अधोगति) न हो।" वेदके इस उच्च आदेशको भगवान् कृष्णने गीतामें पुनः दोहराया "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्” (६-५), "मनुष्य अपने आत्माका उद्धार करे, उसे ऊपर उठावे नीचे न गिरावे।" कौन है ऐसा अभागा जो उद्यान (ऊपर उठना) आत्मोद्धार नहीं चाहता। जैसा कि पहले कहा गया है उद्यान अर्थात् आत्मोद्धारके लिए आवश्यकता है साध्य तथा साधनके सही ज्ञान की, लक्षण तथा साधनाके उचित सामंजस्यको अर्थात् जीवनकला सीखकर उसे ठीक प्रकारसे जीवनमें उतारने की। मनुष्यका जीवनकाल अत्यन्त ही परिमित है। अनन्त कालके अपार सागरके एक बूंदसे भी अल्प है हमारा जीवनकाल; ऐसी परिस्थितिमें क्या नहीं जानना है और क्या जानना है, क्या नहीं करना है और क्या करना है, इसका हमें विवेकपूर्ण चुनाव कर लेना होगा, फल्गुको त्यागकर सारको ग्रहण करना ही बुद्धिमत्ता है। सभी प्रकारका ज्ञान उपादेय नहीं है, सभी प्रकारका कर्म करणीय नहीं है। ऐसा कोरा ज्ञान जिसका जीवन-निर्माणसे, आत्मविकाससे, आत्मोद्धार तथा उद्यानसे कोई भी सम्बन्ध न हो भाररूप है क्योंकि वह जीवनको ऊपर उठनेसे रोकता है । गीताके अनुसार जिस ज्ञानसे जीवनमें कोई उच्च परिवर्तन न हो, जिस ज्ञानसे जीवनमें दैवी सम्पद्की वृद्धि न हो, संक्षेपमें जिस ज्ञानसे जीवनका विकास तथा उत्थान न हो वह ज्ञान वस्तुतः अज्ञान ही है।' इसी प्रकार जिस कर्मसे मनुष्य अपने लक्ष्यकी ओर अग्रसर न हो, जिस कर्मसे मनुष्य अपने चारों ओरके द्वैतके आवरणको, त्रिगुणात्मक मायाके बन्धनको, ढीला न कर सके, संक्षेपतः जिस कर्म द्वारा, जीवनकी जिस गति द्वारा, वह भूमाके, अद्वैत अमृततत्त्वके अधिकाधिक निकट न पहँच सके वह कोरा अकर्म या विकर्म है । और उसके द्वारा केवलमात्र जीवकी शक्तिका ह्रास ही होता है। व्यवहारमें अद्वैत तथा द्वेतके समन्वयका स्वरूप अतएव द्वत से पार होनेका, अद्वतकी प्राप्तिका, एक मात्र उपाय है जीवनोपयोगी ज्ञान तथा कर्मके द्वतका सहारा लेकर दृढ़तापूर्वक निरन्तर आगे बढ़ते रहना। ज्ञानके दायें पगको आगे रखते हा कर्मके बाँए पगसे उसका अनुसरण करते जाना, ज्ञान और कर्मके दोनों पंखोंमें संतुलन (Balance) रखते हुए अबाध गतिसे ऊपर ऊपर उड़ते जाना। ज्ञान और कर्मके इस संतुलनमें जहाँ अन्तर पड़ा कि ऊपरके उड़नेमें, उद्-यानमें, बाधा पड़ जाती है और मनुष्य फिर द्वतकी ओर लौटने लगता है । ज्ञानके साथ कर्मका मेल न हो तो ज्ञान पंगु है, और कर्मका आधार ज्ञान न हो तो कर्म अन्धा है। ज्ञान और कर्मके सही संतुलनसे, ठीक समन्वयसे ही जीवनकी ऊर्ध्वगति संभव है। द्वतसे ऊपर उठकर ही अद्वतकी प्राप्ति शक्य है। ___ अद्वतकी प्राप्तिके निमित्त आसक्तिका त्याग तथा अभेद भावनाका अभ्यास होना आवश्यक है। ज्यों-ज्यों मनुष्यके हृदयमें अनासक्तिकी वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों उसके अन्तस्थलमें अभेद भावनाकी प्रतिष्ठा होती जाती है। आसक्तिके त्यागका सर्वोत्तम उपाय है अपनी दृष्टिको, अपने विचारोंको उदात्त, विशाल और व्यापक बनाना, और अपने प्रत्येक कार्यको विशाल और व्यापक दृष्टिसे करना। क्षुद्र दृष्टि १. भगवद्गीता १३ । ७-११ । विविध : २९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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