Book Title: Drushtivad ka Swarup Author(s): Hastimal Maharaj Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 1
________________ दृष्टिवाद का स्वरूप आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म.सा. बारहवाँ अंग आगम दृष्टिवाद इस समय अनुपलब्ध है। इसके पाँच विभागों का उल्लेख मिलता है- १. परिकर्म, २. सूत्र, ३. पूर्वगत, ४. अनुयोग और ५. चूलिका सम्प्रनि उपलब्ध स्रोतों के आधार पर प्रस्तुत आलेख में दृष्टिवाट का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यह लेख आचार्यश्वर श्री हस्तीमल जी महाराज द्वारा रचित "जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग-२" से साभार उद्धृत किया गया है। -सम्पादक - दिट्ठिवाय-दृष्टिवाद-दृष्टिपात-यह प्रवचनपुरुष का बाहरवां अंग है, जिसमें संसार के समस्त दर्शनों और नयों का निरूपण किया गया है। अथवा जिसमें सम्यक्त्व आदि दृष्टियों अर्थात् दर्शनों का विवेचन किया गया है। दृष्टिवाद नामक यह बारहवां अंग विलुप्त हो चुका है, अत: आज यह कहीं उपलब्ध नहीं होता। वीर निर्वाण सं. १७० में श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के स्वर्गगमन के पश्चात् दृष्टिवाद का हास प्रारम्भ हुआ और वी.नि. सं १७०० में यह पूर्णत: (शब्द रूप से पूर्णत: और अर्ध रूप में अधिकांशत:) विलुप्त हो गया। स्थानांग में दृष्टिवाद के दस नाम बताये गये हैं जो इस प्रकार हैं१. दृष्टिवाद २. हेतुवाद ३. भूतवाद ४. तथ्यवाद ५. सम्यक्वाद ६. धर्मवाद ७. भाषाविचय अथवा भाषाविजय ८. पूर्वगत ९. अनुयोगगत और १०. सर्वप्राण- भूतजीवसत्त्वसुखावह। समवायांग एवं नन्दीसूत्र के अनुसार दृष्टिवाद के पांच विभाग कहे गये हैं. . परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका। इन पांचों विभागों के विभिन्न भेदप्रभेदों का समवायांग एवं नन्दीसूत्र में विवरण दिया गया है, जिनका सारांश यह है कि दृष्टिवाद के प्रथम विभाग परिकर्म के अन्तर्गत लिपिविज्ञान और सर्वांगपूर्ण गणित विद्या का विवेचन था। इसके दूसरे भेद सुत्रविभाग में छिन्न-छेद नय, अछिन्न-छेद नय, त्रिक नय तथा चतुर्नय की परिपाटियों में से प्रथम- छिन्न छेद नय और चतुर्थ चतुर्नय ये दो परिपाटियां निर्ग्रन्थों की और अछिन्न छेदनय एवं त्रिकनय की परिपाटियां आजीविकों की कही गयी है। दृष्टिवाद का तीसरा विभाग--- पूर्वगत विभाग अन्य सब विभागों से अधिक विशाल और बड़ा महत्त्वपूर्ण माना गया है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित १४ पूर्व थे1. उत्पादपूर्व- इसमें सब द्रव्य और पर्यायों के उत्पाद (उत्पत्ति) की प्ररूपणा की गई थी। इसका पदपरिमाण १ कोटि माना गया है। 2. अग्रायणीयपूर्व- इसमें सभी द्रव्य, पर्याय और जीवविशेष के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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