Book Title: Dipalikakalp
Author(s): Jinsundarsuri
Publisher: Labdhisuri Jain Granthmala
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________________ दीपालिका कल्प // 20 // बोध्यः सतण्डुलः // 427 // इत्थं सहस्रपंचाश-द्गुणं पुण्यमुपायते / जैनधर्मरता भव्याः प्राप्नुवन्त्यक्षयं सुखम् // 428 // यथा का वृक्षेषु कल्पद्रुः सुरेषु त्रिदशाधिपः। चक्रवर्ती नरेन्द्रेषु नक्षत्रेषु हिमयुतिः॥४२९ // तेजखिषु दिवानाथः सुवर्ण सर्व-I धातुषु / तथा दीपालिकापर्व-प्रधानं सर्वपर्वसु // 430 // वीरतीर्थपतिराप निवृतिं यत्र केवलरमां च गौतमः। राजभियरचि दीपकोत्सवस्तत्रतोऽतिगुरुपर्वभूतले // 431 // जयश्रियं यच्छतु वः स एष दीपोत्सवाख्यो दिनचक्रवर्ती। समस्तविश्वत्रितयप्रदत्तराज्योत्सवैर्निर्मितसर्वसिद्धिः // 432 // एवं निशम्याऽऽर्यसुहस्तिसूरे-दीपालिकापर्वसमस्तदेशे / प्रावीवृतत् सम्प्रतिभूमिमा राज्यं वितन्वन् प्रतिवर्षमत्र // 433 // अन्यकर्तृकदीपालि-कल्पादिषु विलोकितः / अर्थो न्यबन्धि कल्पेज खान्योपकृतिहेतवे 434 // यदवद्यं भवेदत्र मन्दबुद्धित्वहेतुना / तदुदारकृपावद्भिःशोधनीय मनीषिभिः॥ 435 // संवत्सरेऽग्नि-३ द्विप 8 विश्व |-14 (1483) संमिते, दीपालिकाकल्पममुं विनिर्ममे / तपागणाधीश्वर-सोमसुंदर-श्रीसूरिशिष्यो जिनसुंदराहयः॥४३६॥ दीपालिकापर्वकल्पोऽयं वाच्यमानः सुधीजनैः / जीयाजयश्रियो हेतु-राचन्द्रार्कजगत्त्रये // 437 // श्रीतपागच्छाधिराजश्रीसोमसुंदरसूरेः / शिष्यभट्टारकप्रमो-र्जिनसुंदरसूरेः कृतिरेषा विनिर्मिता / / // 2

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