Book Title: Diksha Dharm
Author(s): Unknown
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 9
________________ [ ७ ] है उन लोगोंमें धर्म, धर्म गुरु और धर्म स्थानोंके प्रति भक्तिभाव कैसे हो सकता है ? और इस भक्तिभाव न होनेकी वजहसे वे युवक धर्म और धर्मगुरुओंका उच्छेद चाहें तो वह स्वाभाविक है । आज त्याग मार्गके प्रति जो विरोध दिखाई देता है और जिसको संभालने के लिए धर्म प्रेमियों को अथक परिश्रम करना पड़ता है, साधु जीवनसे ऊब कर उसे तुच्छ, निरस और अनावश्यक समझकर जो हँसी की जाती है, दीक्षाको मुश्किल बनानेकी चेष्टा देखी जाती है दीक्षितको संन्यास छुडा फिर संसारमें लाने का प्रयत्न किया जाता है और संसारमें मग्न रहनेकी भावनाओंको जो पोषा जाता है उन सबका कारण भौतिक सुधारका तूफान है और अपनी विकृत दृष्टिसे त्यागियोंको देखनेकी वृत्ति है। त्याग मार्गके विरोधके साधन इस वृत्तिसे दीक्षाके विरोधमें अनिच्छनीय प्रचार हो रहा है और दीक्षा और दीक्षितके महत्वको तुच्छ करनेकी चेष्टा हेरही है। इस प्रचारकी चार युक्तियां हैं। वे हैं दीक्षाके साधन, नूतन दीक्षितकी साधु संस्थामें विषम स्थिति, दीक्षामें सहायकका स्वार्थी मानस और साधु संस्थाकी बदियां । लेकिन ये चारों कारण बनावटी और अतिशयोक्तिसे भरपूर हैं और भोली जनताको पवित्र त्याग मार्गके विरुद्ध उत्तेजित करते हैं। वे कहते हैं कि दीक्षामें सहायकोंका स्वार्थ है क्योंकि दीक्षा देने वाले माता-पिताको धन प्राप्तिका स्वार्थ होता है और मदद करनेवालों को भी वही स्वार्थ है। साधु भी दीक्षितकर अपनी सेवाके लिए एक गुलाम बनाना चाहता है और फिर मनमाना त्रास देता है और दीक्षित दीक्षाके बाद आत्महित साध नहीं सकता अर्थात् शांतिके लिए संसार त्याग कर दीक्षा लेता है उसके बनिस्पत गुलामीके वातावरणमें वह मुरझा जाता है और संसार में वापस आने की इच्छा करता है। अन्तमें जो साधु पंच महाव्रतधारी कहलाते हैं । वे वस्तुतः वैसे नहीं हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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