Book Title: Dhyan ka Vaigyanik Vivechan Author(s): A Kumar Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 5
________________ ध्यान का वैज्ञानिक विवेचन १३३ शरीर-तन्त्र में दो प्रकार की ग्रन्थियाँ होतो है-अन्तःस्रावी और वहिःस्रावी । अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ शरीर के विभिन्न स्थानों पर होती है और उनके स्राव भोजन से प्राप्त पदार्थों से बनते हैं और सीधे ही रक्त में मिलकर शरीर तन्त्र में पहुचते हैं । यह स्पष्ट है कि इन स्रावों का उचित मात्रा में निर्माण हमारे भोजन की पोषकता पर निर्भर करता है । कुछ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के नाम कार्य व स्राव सारणी १ में दिये जा रहे है। प्रयोगों से यह पाया गया है कि यदि इन ग्रन्थियों को तन्त्र से काटकर अलग कर दिया जावे, तो उनसे सम्बन्धित क्रियाओं में मंदता एवं अवरोध आ जाता है। सारणी १ : अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों के विवरण स्थान कार्य स्राव ग्रन्थि १. पीनियल पीयूषिका २. पिट्यूटरी, पीयूष मस्तिष्क मस्तिष्क वाल्यावस्था को नियन्त्रित करना। सभी ग्रन्थियों का नियन्त्रण, आवेग या भावनात्मक नियन्त्रण, स्वायत्त स्नायु-तन्त्र । ३. ऐडीनल छह होर्मोन स्रवित होते हैं : वृद्धि होर्मोन, एफ० एस० एच०, गोनड होर्मोन, ऑक्सीटोसिन,थायरो ट्रोपिक, एड्रीनोकोटिकोट्रोपिक । एडेनलीन, नोर-एडेनलीन, यौन होर्मोन। थायरोक्सीन, पेराथायरोक्सीन । इंस्युलिन । बहिःस्रावी अग्न्याशयी रस । (i) टेस्टोस्टेरोन । (ii) ऐस्ट्रोजन, प्रोजेस्टेरोन । वक्तू/किडनी क्रोध, भय, उत्तेजना एवं स्वायत्त स्नायु तन्त्र का नियन्त्रण । गर्दन चयापचय प्रेरक । उत्तेजनशीलता, कैल्सियम नियंत्रक । उदर पाचन, कार्बोहाइड्रेटादि चयापचय । जनन तन्त्र शुक्राणु निर्माण, अंडाणु निर्माण। ४. थायरॉयड ५. पेराथायरॉयड ग्रन्थि ६. अग्न्याशय ग्रन्थियाँ ७. प्रजनन ग्रन्थियां सामान्यतः ग्रन्थियों के स्रावों की मात्रा स्वयं नियन्त्रित होती रहती है। फिर भी, इन स्रावों को रासायनिक उद्दीपकों की सहायता से न्यूनाधिक किया जा सकता है । ये उद्दीपक भी प्रायः अंतःस्रावी होते हैं । ये अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ वाहिनीहीन कहलाती है। इनके विपर्यास में लार, अश्र, यकृत आदि कुछ ग्रन्थियाँ होती हैं जिनके स्राव विभिन्न वाहिनियों द्वारा शरीर-तन्त्र में पहुँचते हैं। ध्यान प्रक्रिया में इन ग्रन्थियों का उतना महत्व नहीं होता जितना सारणी १ में दी गई ग्रन्थियों का होता है । यह पाया गया है कि शरीर तन्त्र की शरीर-क्रियाओं एवं मस्तिष्क यथा भावनात्मक प्रक्रियाओं के समवेत रूप में सम्पन्न होने के लिये इन स्रावों का समुचित मात्रा में उत्पन्न होते रहना तथा स्नायु तन्त्र का सामान्य बने रहना अत्यावश्यक है । मानव-मस्तिष्क का आधुनिक विवरण मस्तिष्क प्राणियों की बुद्धि, व्यवहार, क्रियाओं एवं प्रतिभाओं का संचालन एवं नियन्त्रण करता है। मानव मस्तिष्क प्राणियों में सर्वाधिक विकसित होता है। जैन शास्त्रों में शरीर के अंगों के रूप में सिर तथा उसके अन्तघंटक के रूप में मस्तिष्क का नामोल्लेख मात्र आता है। उसमें विकृति के कारण मूर्छा, पागलपन आदि रोग होते हैं। उसकी निमलता से जाति स्मरण और अन्तः प्रतिभा प्रसूत होती है। इसका प्रमाण एक अंजुलि (दोनों हथेलियों को मिलाने से बनने वाला संपुट, जिसमें लगभग १२५ ग्राम जल आता है। बताया गया है। इस विवरण को तुलना में आज के शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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