Book Title: Dhyan ka Vaigyanik Vivechan Author(s): A Kumar Publisher: Z_Jaganmohanlal_Pandit_Sadhuwad_Granth_012026.pdf View full book textPage 8
________________ १३६ ५० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ [खण्ड इन रसायनों द्वारा संवेदन-संचरण की प्रक्रिया में कुछ भौतिक परिवर्तन भी होते हैं। इनके कारण कुछ तत्वों की कोशिकीय झिल्ली की प्रवेशन क्षमता में वृद्धि हो जाती है। इस कारण झिल्ली के दोनों ओर विश्रान्ति अवस्था में विद्यमान विद्युत्-शक्ति की वोल्टता में परिवर्तन होता है। यह वोल्टता-परिवर्तन भी संवेदन-संचरण को प्रेरित करता है। यह पाया गया है कि विधान्तिकाल में झिल्ली के आर-पार की वोल्टता-०.४५ मिलीवोल्ट होती है। यह संवेदनसंचरणकाल में, परिस्थितियों के अनुसार, न्यूनाधिक हो जाती है। रासायनिक पदार्थों के द्वारा न्यूरानों की विद्युत वोल्टता में होने वाले परिवर्तन से संवेग-संचरण की प्रेरित प्रक्रिया मस्तिष्क क्रिया विधि की विद्युत आधारित व्याख्या है। यह स्पष्ट है कि यदि संचरण की प्रक्रिया में भाग लेने वाले न्युरोहार्मोन समचित मात्रा में उत्पन्न न हों अथवा विद्यतवोल्टता में उपयुक्त परिवर्तन न हो, तो मस्तिष्क को क्रियाविधि में व्यवधान या अप/अव सामान्यता सम्भव हो सकती है । शरीर और मस्तिष्क पर ध्यान के प्रभावों का वैज्ञानिक अध्ययन प्राचीन योगियों की ध्यान के प्रभावों के अनुभूतिगम्य होने की धारणा अब वैज्ञानिक प्रक्रियाओं एवं उपकरणों के माध्यम से उनकी प्रयोग-गम्यता में परिणत हो गयी है । ध्यान के दो प्रकार के प्रभाव होते हैं-दृश्य और अदृश्य । वैज्ञानिकों की अनुसंधान सीमा में दोनों प्रभावों का अध्ययन समाहित होता है । ध्यान से शरीर-तंत्र की विविध प्रणालियों पर तीक्ष्ण प्रभाव पड़ता है। इन प्रभावों को शारीरिक और मानसिक कोटियों में वर्गीकृत किया जा सकता है । इन का संक्षेपण नीचे दिया जा रहा है । ध्यान के शारीरिक प्रभाव (i) सहज निद्रा : यह माना जाता है कि आधुनिक समस्याग्रस्त जीवन में हमारा अनुकंपी नाड़ी संस्थान सदा उत्तेजित रहता है। इससे शनैः शनैः अनेक मनोविकार और रोग जन्म लेते हैं। इच्छाओं का दमन भी इन्हें प्रेरित करता है। औषधियाँ इनका तात्कालिक उपाय ही करती है। वे बाह्य दोष का निवारण करती हैं, पर मूल कारण यथावत रहते हैं। यही नहीं, ये औषधियाँ कालान्तर में सहज निद्रा में भी व्यवधान बनती हैं। इस दिशा में ध्यान उत्तम प्रभाव उत्पन्न करता है। इससे प्राप्त होने वाली शारीरिक और मानसिक विश्रान्ति सहज निद्रा से भी सुखकर कोटि की होती है। (ii) चयापचय की दर में कमी : ध्यानाभ्यास से चयापचयी क्रियाकलापों की दर में कमी हो जाती है । इसका कारण विविध दिशाओं की ओर से वृत्तियों को हटाकर एकदिशो प्रवर्तन है। अनेक दिशो वृत्तियों से सक्रियता या ऊर्जा व्यय अधिक होता है। एक दिशी वृत्ति में ऊर्जा व्यय कम होने से ऊर्जा-उत्पादक चयापचय की दर भी कम हो जाती है । (iii) काबन-डाइ-ऑक्साइड एवं ऑक्सीजन के उपभोग की मात्रा में कमी । ध्यानावस्था में विश्रान्ति अवस्था की ओर वृत्ति होने से चयापचयी दर में कमी होती है। इस क्रिया में श्वासोच्छवास की वायु एवं कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का गमनागमन में उपयोग होता है। यह पाया गया है कि निद्रावस्था की तुलना में ध्यान की अवस्था में ऑक्सीजन के उपभोग में दस प्रतिशत की अपेक्षा बीस प्रतिशत की कमी होती है। (iv) अन्य तंत्रों पर प्रभाव (अ) फेफड़े कम मात्रा में ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं। (ब) श्वासोच्छवास की गति पचास प्रतिशत तक कम हो जाती है। (स) वायु के अन्तः प्रवेश की गति बीस प्रतिशत तक कम हो जाती है । (द) हृदय से रक्त निष्कासन की दर तथा धड़कन कम हो जाती है । (य) चयापचयी दर की कमी से कोशिकाओं को कम रक्त की आवश्यकता होती है। इससे उन्हें विश्राम मिलता है और उनमें ऊर्जा संचय हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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