Book Title: Dhyan aur Anubhuti
Author(s): Ashok Kumar Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 3
________________ अन्वेषण में करता है। उसने ऐसी औषधियों का पता लगाया जिनसे करोड़ों व्यक्तियों के प्राण बच गए। उसने ही परमाणु अस्त्रों का भी पता लगाया जिनसे समस्त मानवता का अस्तित्व खतरे में पड़ गया । व्यापारी अपना मनोबल व्यवसाय की वृद्धि में लगाता है, औद्योगिक विकास के साथ शोषण के तरीके भी सोचता है । राजनीतिज्ञ एक ओर प्रजा-पालन की बात सोचता है, दूसरी ओर शत्रु के नाश की । इस प्रकार मनोबल का उपयोग दोनों दिशाओं में होता आया है । इसीलिए हमारे ऋषियों ने ध्यान को अध्यात्म के साथ जोड़ा। प्रातः जगने से लेकर रात्रि में नींद आने तक हमारे मस्तिष्क को अनेक प्रकार के विचार घेरे रहते हैं। नींद के बाद भी सपनों में उनका तांता चलता रहता है । बहुत से विचार जीवन के लिए उपयोगी होते हैं । वे जब आते हैं तो मन में सुख और शांति की अनुभूति होती है, किन्तु अधिकांश विचार निरर्थक और मन को दुर्बल बनाने वाले होते हैं। ध्यान : प्रकाश एवं उर्जास्रोत ऐसा कोई लक्ष्य नहीं जिसे ध्यान के द्वारा प्राप्त न किया जा सके। ऐसा कोई रोग नहीं, जिसे ध्यान के द्वारा दूर न किया जा सके । विधिपूर्वक किया गया ध्यान हृदय को शुद्ध करता है और दृष्टि को निर्मल बनाता है। ध्यान ऊँचे उड़ने के लिए पंख प्रदान करता है और भौतिक जगत् की संकुचित परिधियों से ऊपर उठने का सामर्थ्य देता है । ध्यान के निरंतर अभ्यास से हम अपने दुःखों और कष्टों से मुक्ति पा सकते हैं। मानव शरीर में कुछ ऐसे केन्द्र हैं जो चेतना के विभिन्न स्तरों को प्रगट करते हैं। जब मन नीचे के केन्द्रों पर अधिष्ठित होता है तो क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि विचार घेर लेते हैं। शरीर अस्वस्थ रहने लगता है और मन ध्यान और अनुभूति Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक अशांत, पर जब उन केन्द्रों को छोड़कर ऊपर की भूमिकाओं में पहुँचता है तब जीवन के सूक्ष्म तथा शक्तिशाली तत्वों के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। सौन्दर्य, प्रेम, आनन्द आदि सात्विक गुणों की अभिव्यक्ति होने लगती है । विचार तथा व्यवहार में एकसूत्रता आ जाती है। पवित्रता, नम्रता, सहानुभूति आदि दैवी गुणों का विकास होने लगता है, मन के अन्तर्मुखी होने पर ही सच्ची शक्ति प्राप्त होती है । साधारण व्यक्ति विषम परिस्थितियों में पड़कर अपने आपको खो देता है । मानसिक संतुलन नष्ट हो जाता है। समझदार उस समय ध्यान और मानसिक स्थिरता का अभ्यास करता है । साधक को दृढ़ निष्ठा और एकाग्रता से ध्यान द्वारा जो प्रकाश मिलता है, उससे वह अपनी प्रत्येक इच्छा पूर्ण कर लेता है । सभी व्यक्तियों का मानसिक धारतल एक-सा नहीं होता । अतः सभी को एक ही प्रकार के ध्यान से लाभ नहीं मिल सकता। जो व्यक्ति तमोगुणी है जिनमें अज्ञान की प्रधानता है, उसके चित्त को जागृत करने की आवश्यकता होती है। जिसका चित्त रजोगुणी है उसे शांत करने की आवश्यकता है । जिस व्यक्ति में आसक्ति या राग की प्रधानता है उसे अनासक्ति का अभ्यास करना होगा और जिसमें द्वेष वृत्ति की प्रधानता है उसे मित्रता का अभ्यास करना होगा । अहंकारी को विनय सीखना चाहिए और जो आत्म-सम्मान खो चुका है उसे निज-शक्ति की पहचान करा होगी। जो अशांत है उसे शांति की आवश्यकता है और जो निष्क्रिय बना हुआ है उसे खड़ा होने की । जब हम अपने प्रिय पात्र का चित्र देखते हैं (जो वास्तव में कागज का टुकड़ा होता है) उसे देखते ही ऐसी अनुभूति होती है जैसे सामने बैठा हो, तदनुसार सारी चेष्टाएँ बदल जाती हैं । ध्वज केवल कपड़े का टुकड़ा है किन्तु जब उसके साथ राष्ट्रीय अस्मिता जुड़ जाती है तो हम उसकी प्रतिष्ठा में मरने-मारने को तैयार हो जाते हैं । For Private & Personal Use Only ११३ www.jainelibrary.org

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