Book Title: Dhyan aur Anubhuti
Author(s): Ashok Kumar Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 2
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि नहीं है । उसकी खोज हमारी अपनी ही खोज है । धन, संतान, पत्नी आदि अपने आप में प्रिय नहीं होते वे हमें तृप्त करने के कारण प्रिय लगते हैं किन्तु आत्मा अपने आप में प्रिय है। साथ ही वह आनन्द रूप है। उसे प्राप्त कर लेने पर समस्त दुःख मिट जाते हैं । समस्त स्वार्थ पूर्ण हो जाते हैं। उसके साक्षात्कार से बढ़कर कोई स्वार्थ नहीं है । इस प्रकार पुनः पुनः चिंतन करने पर भावना दृढ़ होती है और एक दिन साक्षात्कार हो जाता है। साधना जगत् में इस प्रक्रिया को ध्यान कहा जाता है। ध्यान में सफलता प्राप्त करने के लिए उसके स्वरूप और प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिए। बिना विचारे किया गया ध्यान अभीष्ट फलदायक नहीं होता । साधक जिस ध्यान को प्रारम्भ करे निरन्तर उसी का अभ्यास करता रहे। बदलते रहने से यथेष्ट लाभ नहीं मिलता । ध्यान मन में विशेष प्रकार के संस्कार उत्पन्न करने की प्रक्रिया है । ये संस्कार तभी उत्पन्न होते हैं, जब निरन्तर एक ही बात का चिंतन किया जाए। एक ही आलम्बन रहने पर वह उत्तरोत्तर स्पष्ट होता चला जाता है उसमें दृढ़ता आती है । आँखें बंद करने पर भी ऐसा प्रतीत होता है जैसे सामने बैठा हो । वास्तविक लाभ उठाने के लिए आवश्यक है। कि ध्यान में प्रतिपादित प्रत्येक शब्द को समझकर मन में उतारने का प्रयत्न किया जाए। महाकवि कालिदास ने अपने 'कुमारसंभव' में सार्वभौम सत्ता के रूप में ईश्वर का चित्रण किया है । उसका ध्यान करने से विश्व के कणकण में परमात्मा की अनुभूति होने लगती है। प्रत्येक हलचल में उसकी हलचल अनुभव होती है । साधक का उस महासत्ता के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। वह उसकी शक्ति को अपनी शक्ति समझने लगता है। ध्यान में ज्योंज्यों आगे बढ़ता है दुर्बलताएं और दुःख दूर होते जाते है । अज्ञान का अंधकार मिटता चला जाता है और परमात्मा की ज्योति चमकने लगती है। ध्यान में हमें ११२ परमात्म तत्त्व का चिंतन करना चाहिए। ध्यान में चिंतन आवश्यक भगवद् गीता में स्थितप्रज्ञ का स्वरूप बताया गया है, उसका ध्यान करने से मन में दृढ़ता आती है। काम, क्रोध, राग-द्वेष, लोभ आदि विकार शांत होते हैं । चित्त स्थिर और निर्मल बनता है । आत्म ज्योति प्रगट होती है। ध्यान में निन्नलिखित बातों का चिंतन करना चाहिए जब समस्त कामनाएं शांत हो जाती है तो मन में किसी प्रकार की इच्छा उत्पन्न नहीं होती, मनुष्य अपने ज्ञान में तल्लीन रहने लगता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। जिस प्रकार कछुआ समस्त अंगों को समेट लेता है, इसी प्रकार जो व्यक्ति इंद्रियों को समेट लेता है उन्हें बाह्य विषयों की ओर नहीं जाने देता, उनकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। समझदार व्यक्ति इन्द्रियों को वश में रखने का प्रयत्न करता है । फिर भी वे मन को बलपूर्वक खींचती रहती है। उन सबको नियंत्रित करके मन को परमात्मा के ध्यान में लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में – “ध्यान चेतना की वह अवस्था है जहाँ समस्त अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं, विचारों में सामंजस्य आ जाता है, परिधियाँ टूट जाती हैं और भेद-रेखाएं मिट जाती हैं। जीवन और स्वतंत्रता की अखण्ड अनुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रहता । संकुचित जीवात्मा विराट् सत्ता में विलीन हो जाता है । ध्यान का सम्बन्ध किससे ? Jain Education International साधारणतया ध्यान का सम्बन्ध आत्मा, ईश्वर आदि अतीन्द्रिय तत्त्वों के साथ जोड़ा जाता है किन्तु लौकिक जीवन में भी उसकी उतनी ही उपयोगिता है जितनी आध्यात्मिक जीवन में। हम व्यायाम द्वारा शारीरिक शक्ति प्राप्त करते हैं उसे अच्छे या बुरे किसी भी कार्य में लगाया जा सकता है। वैज्ञानिक अपने चिंतन का उपयोग नवीन ध्यान और अनुभूति For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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