Book Title: Dhyan Yoga Drushti aur Srushti
Author(s): Anant Bharti
Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf

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Page 5
________________ ए न्ड डडडड .5000000000000000४०० RA200 00200.00 600002009 ५०३ | अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर से रहित हो जाते है, उसमें दूरश्रुति दूरदृष्टि की शक्ति आ जाती है, रत्नत्रय की साधना है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र बहिर्मुखी प्रवृत्तियाँ शान्त हो जाती है, वह अन्तर्मुखी हो जाता है। की साधना है। ध्यान योगी अनन्त धर्मात्मक अनन्त पर्यायात्मक पापवृत्तियाँ विलीन हो जाती हैं, सत्यनिष्ठा प्रामाणिक प्रातिभज्ञान । जागतिक पदार्थों को एक-एक करके प्रत्येक पर्याय को, प्रत्येक धर्म और विनय उसके स्वभाव में बस जाते हैं। कापोत लेश्या पर ध्यान को ध्येय बनाकर उसका ध्यान करता है, समग्र रूप से अनन्त से काम, क्रोध, लोभ, मोह शान्त हो जाते हैं, शरीर रोग आदि से पर्यायात्मक विश्व को जानने का प्रयत्न करता है। यह उसकी मोक्ष रहित पूर्ण शुद्ध और निर्मल हो जाता है। तेजोलेश्या में ध्यान से | साधना का प्रथम सोपान होता है। चेतना संस्थान पूर्ण सक्रिय हो जाता है, अन्तश्चेतना के विविध धर्मध्यान के अधिकारी भी सब नहीं बन पाते। आज्ञारुचि, आयाम खुल जाते हैं। पद्म लेश्या में ध्यान से मस्तिष्क के सभी । निसर्गरुचि, सूत्ररुचि और अवगाढ़रुचि ये चार गुण किसी साधक आयाम खुल जाते हैं, दर्शन केन्द्र और आनन्द केन्द्र जागृत हो जाते को धर्मध्यान का अधिकारी बनाते हैं। इनके बिना कोई साधक हैं और जब साधक शुक्ल लेश्या में ध्यान की स्थिति में पहुँचता है, । धर्मध्यान में सफल होना कौन कहे, प्रवृत्त भी नहीं हो पाता। यदि तो उसकी चेतना के बाह्य मन के साथ अवचेतन और अचेतन मन किसी पुण्य प्रताप से प्रवृत्ति हो भी गयी तो स्थिरता नहीं बन पाती। से भी कषाय मिट जाते हैं, उसमें ऐसी अपूर्व शक्ति आ जाती है यदि किसी साधक में उपर्युक्त चारों रुचियाँ विद्यमान हैं तो निश्चय कि उसके सान्निध्य में सब प्राणियों के वैर-विरोध मिट जाते हैं, ही कुछ काल की साधना से ही उसका चित्त पूर्ण पवित्र हो जायेगा उसके नाम के स्मरण मात्र से सहस्रों व्यक्ति शान्ति की अनुभूति और उसकी अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों का विकास होने लगेगा। करते हैं। आज्ञाचक्र के अनुप्राणित हो जाने से अवधि ज्ञान और । मनःपर्यय ज्ञान ही नहीं, केवल ज्ञान की भी उसे प्राप्ति हो जाती है। धर्मध्यान के भेद-जैन आगमों में धर्मध्यान के चार भेद बताये ध्यान साधना का यह सर्वोत्तम फल साधक को प्राप्त हो जाता है। | गये हैं-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। गय दार्शनिक दृष्टि से ध्यान के प्रकार-स्वरूप की दृष्टि से जैन आज्ञाविचय-आज्ञाविचय का अर्थ है तत्त्वश्रद्धान। अहिंसा आगमों में ध्यान के चार प्रकार माने गये हैं-(१) आर्तध्यान, सर्वज्ञ भगवान् के आदेशों पर श्रद्धापूर्वक विचार करना, चिन्तन मनन करना, साक्षात्कार करना और उन्हें जीवन में आत्मसात् (२) रौद्रध्यान, (३) धर्मध्यान और (४) शुक्लध्यान। इनमें प्रथम दो करना, व्यवहार में उतारना-आज्ञाविचय में सम्मिलित है। को अप्रशस्त तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान को प्रशस्त ध्यान माना गया है। अपायविचय-अपायविचय में राग-द्वेष, क्रोध, कषाय, मिथ्यात्व, प्रमाद, अविरति आदि दोषों का निवारण करने के लिए उपायों का इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग, प्रतिकूल वेदना अथवा पीड़ा का चिन्तन और उनके द्वारा दोषों का निवारण किया जाता है। चिन्तन एवं कामोपभोगों की लालसा आर्तध्यान के चार प्रकार हैं। विपाकविचय-विपाकविचय धर्मध्यान में शुभ और अशुभ हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी और विषय संरक्षणा कार्यफलों का अनुभव करते हुए उनके कारणभूत कर्मों, भावनाओं नुबन्धी ध्यान रौद्रध्यान के भेद हैं। तक का अनुसन्धान करके साधक उनसे मुक्त होने के लिए क्रमशः ___ धर्मध्यान-साधारण रूप से धर्मध्यान का अर्थ लिया जाता है; गुणस्थानों में आरोहण करते हुए, आत्मा से कर्म सम्बन्ध के विच्छेद आर्त और रौद्र ध्यान से भिन्न और धर्म से निर्देशित साधक के के लिए चिन्तन करते हुए तदनुकूल साधना करता है। सभी क्रिया-कलाप और विचारणाएँ। किन्तु धर्मध्यान की सीमाएँ संस्थानविचय-चतुर्थ धर्मध्यान संस्थानविचय की साधना में इतनी संकुचित नहीं हैं। धार्मिक अनुचिन्तन, तत्त्व विचारणा और ध्यानयोगी लोक के स्वरूप, छः द्रव्यों के गुण-पर्याय, संसार, द्रव्यों तत्त्व चिन्तन के साथ धर्मध्यान में तत्त्व साक्षात्कार भी सम्मिलित के उत्पाद-ध्रौव्य-व्यय, लोक की शाश्वतता और अशाश्वतता, द्रव्य है। इस साक्षात्कार के अनुरूप व्यवहार अर्थात् सम्यक्चारित्र का भी की परिणामीनित्यता, जीव की देव, मनुष्य, नारक और तिर्यञ्च समावेश अभीष्ट है। वस्तुतः ज्ञान (विद्या) की परिपक्वता व्यवहार गति आदि का चिन्तन करके आत्मशुद्धि करता है। में ही होती है। तभी तो महर्षि पतञ्जलि ने कहा है-“चतुर्भिः धर्मध्यान की इस साधना में वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति। आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन धर्मकथा ये चार आलम्बन होते हैं। एकत्वानुप्रेक्षा, अनित्यानुप्रेक्षा, व्यवहारकालेन इति।" अशरणानुप्रेक्षा और संसारानुप्रेक्षा धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं हैं, अर्थात् विद्या की उपयुक्तता अथवा पूर्णता चारों सोपानों को । जिनके माध्यम से ध्यानयोगी तत्त्व साक्षात्कार तक पहुँचता है। लांघने पर ही हो पाती है वे सोपान हैं-आगम (श्रवण या अध्ययन) ध्यान के आलम्बन की दृष्टि से ध्यान के चार भेद हो सकते स्वाध्याय (चिन्तन-मनन) प्रवचन (आग्रह रहित परिचर्चा) और हैं-पिण्डस्थ ध्यान, पदस्थ ध्यान, रूपस्थ ध्यान और रूपातीत ध्यान। व्यवहार अर्थात् जीवन में आचारण। जैन परम्परा भी सम्यक्चारित्र इनके अतिरिक्त ध्येय की दृष्टि से, योग की दृष्टि से भी ध्यान के के बिना सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को सार्थक नहीं मानती। यदि अनेक भेद होते हैं। विस्तारभय से हम यहां उनकी चर्चा अथवा एक वाक्य में हम कहना चाहें, तो कह सकते हैं कि धर्मध्यान उनका परिचय नहीं दे रहे हैं। ODOBOU OOR FEEDStandbahelipinaso:00:0-3desh DOD.00000000000 JUGAUSaroKOKH600 PESAPovieRampaldaseanip.o:00:0.0.065 306600000000000DOODDODOL 96.00000

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