Book Title: Dhyan Yoga Drushti aur Srushti Author(s): Anant Bharti Publisher: Z_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf View full book textPage 3
________________ 000000000000 000000000000 00.0000000 SO9000000000 अध्यात्म साधना के शास्वत स्वर ५०१ 280000DHA की अनित्यता, अशुचिता आदि का बोध होता है जिसके फलस्वरूप मन में पहुँचता है। कालान्तर में अपने सम्पूर्ण संस्कारों का शरीर के प्रति उसका मोह क्षीण होने लगता है, अपने शरीर के साक्षात्कार कर लेता है क्योंकि संस्कार ही हमारे सुखों-दुःखों, प्रति भी जुगुप्सा भाव पनपने लगता है, जो कालान्तर में पूर्ण । व्यवहारों और वर्तमान कर्मों के नियामक होते हैं। अतः संस्कारों वैराग्य का हेतु बनता है। स्थूलकाय की प्रेक्षा का अभ्यास हो जाने का साक्षात्कार होने पर साधक उनका निरसन कर लेता है, फलतः पर साधक सूक्ष्मकाय, जिसे तैजस्काय भी कहते हैं, की प्रेक्षा । उसके राग, द्वेषादि, मन के संवेग जड़ मूल से नष्ट हो जाते हैं। करना प्रारम्भ करता है। सूक्ष्मकाय में मन, बुद्धि, चित्त और संवेगों के शान्त हो जाने पर साधक की सभी क्रियाएँ निष्काम हो अहंकार ये चार, अन्तःकरण, प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, जाती हैं। निष्काम कर्म बन्धन के कारण नहीं बनते। अतः साधक नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनंजय ये दस प्राण और आत्मा के लिए मोक्षमार्ग का द्वार खुल जाता है। आते हैं। साधक क्रमशः इनकी प्रेक्षा करता है। इनके स्वरूप, स्थिति कषायप्रेक्षा-कषाय का अर्थ काम, क्रोध आदि मनोवेग हैं। ये 8290% और कार्यों का निरीक्षण करता है। चेतना के केन्द्रभूत चक्रा की (काम, क्रोध आदि) सुक्ष्म रूप में हमारे कार्मण शरीर अर्थात् प्रेज्ञा करता है, उनमें अद्भुत ज्योति का साक्षात्कार करता है। संस्कारों में भरे पड़े रहते हैं, और उत्तेजक परिस्थिति मिलने पर तैजस् कायप्रेक्षा के बाद साधक कार्मण काय की प्रेक्षा करता प्रकट होते हैं। सामान्य जन अभिव्यक्ति होने पर इन्हें पहचान पाता है, जिसे कारण शरीर भी कहते हैं। कार्मणकाय की प्रेक्षा के क्रम में है, किन्तु संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा में दक्षता प्राप्त साधक अवचेतन वह क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध कर्मों के समूह को, कर्मों के । मन की गहराई तक पहुँचकर इनका, इनके कारणों का और उनके संस्कारों को देखता है, जिनके कारण उसे यह मानव शरीर मिला। कार्यों अर्थात् परिणामों का साक्षात्कार तटस्थ होकर करता है। है और सुख-दुःख के विविध रूप परिणाम प्राप्त हो रहे हैं, कर्म । उसके परिणामस्वरूप आवेग संवेग उपशान्त हो जाते हैं, उनके मूल और कर्मफल के सम्बन्ध को देखता है, पहचानता है। कारण गलित हो जाते हैं और साधक सच्ची आध्यात्मिक शान्ति की इस कायप्रेक्षा के परिणामस्वरूप साधक प्रमादरहित होकर सतत ओर निर्बाध बढ़ने लगता है। जागरूक हो जाता है, वह जन्म-जन्मान्तर के रहस्य को पहचान पुद्गल या अनिमेषप्रेक्षा-अनिमेष प्रेक्षा हठयोग की परम्परा के लेता है, फलत मोक्ष साधना में वह दृढ़तापूर्वक प्रवृत्त हो जाता है। त्राटक के बहुत निकट है। किसी एक पुद्गल, भित्ति या फलक पर RD श्वासप्रेक्षा-प्रेक्षा ध्यान का दूसरा रूप श्वासप्रेक्षा है। इसमें । निर्मित बिन्दु, जिन प्रतिमा अथवा अपने आराध्य की प्रतिमा के साधक नासिका मार्ग से आने जाने वाले श्वास-प्रश्वास की गति की समग्र अंश अथवा बिन्दु विशेष पर अथवा नासाग्र पर अनिमेष प्रेक्षा करता है। श्वास-प्रश्वास, प्राण और मन तीनों परस्पर सतत अर्थात् पलक झपकाये बिना स्थिर रूप से देखना पुद्गल प्रेक्षा या 0 अनिमेष प्रेक्षा है। सामान्यतः मानव मस्तिष्क के असंख्य ज्ञानकोषों सम्बद्ध और सहचारी है। नाड़ी संस्थान भी उसके साथ जुड़ा हुआ में केवल कुछ ही क्रियाशील रहते हैं, शेष सुप्त अवस्था में पड़े। है; अतः श्वासप्रेज्ञा में साधक इनकी स्थिति, गति और उसके रहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान की क्षमता उन सुप्त कोशों में विद्यमान प्रभाव की प्रेक्षा करता है। रहती है। किन्तु इन कोशों के सुप्त अवस्था में पड़े रहने से मानव 60002 श्वास-प्रश्वास की गति दो प्रकार की होती है; सहज और । अल्पज्ञ बना रहता है। अनिमेष प्रेक्षा से ये सुप्त ज्ञानकोश क्रियाशील प्रयत्नपूर्वक। प्रयत्नपूर्वक श्वास-प्रश्वास की गति को प्राणायाम कहते । हो जाते हैं, फलतः साधक अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है। हैं। प्राणायाम साधना अष्टांग योग का चतुर्थ अंग है। हठयोग की ___ वर्तमान क्षण की प्रेक्षा-वर्तमान क्षण भूत और भविष्य की वह प्रधान क्रिया है, उसका वर्णन यहाँ अप्रासंगिक है।२ सहज और । 6sa विभाजक रेखा है। यह क्षण तलवार की धार की भांति सूक्ष्मतम है। सप्रयत्न दोनों ही प्रकार के श्वास-प्रश्वास की प्रेक्षा से अनेक रोगों सामान्यतः मानव वर्तमान को भूलकर भूत और भविष्य के मध्य की निवृत्ति होकर सामान्य स्वास्थ्य की प्राप्ति तो होती ही है; साधक जीता है। भूत के क्षणों को स्मरण कर राग-द्वेष के झंझावाती थपेड़ों को सुषुम्णा पर विजय प्राप्त हो जाती है, उसकी इच्छानुसार दक्षिण में स्वयं को पीड़ित करता है और भविष्य के क्षणों की कल्पना में या वाम नासापुट से उसका श्वास चलने लगता है। काम, क्रोध, नाना संकल्प-विकल्पों के जाल बुनता हुआ उसमें निरन्तर उलझता लोभ, मोह आदि मनोवेगों पर साधक विजय प्राप्त कर लेता है जाता है, जो उत्तरोत्तर बन्ध का कारण बनता है। वर्तमान क्षण की और चंचल चित्त पूर्णतः उसके वश में हो जाता है। प्रेक्षा की साधना से साधक राग द्वेष मान मत्सर आदि विकारों से विचार प्रेक्षा या संकल्प-विकल्पों की प्रेक्षा-श्वासप्रेक्षा के और अनन्त संकल्प-विकल्पों के ज्ञान से मुक्त हो जाता है। इसीलिए अभ्यास से साधक सूक्ष्म द्रष्टा बन जाता है। विचार प्रेक्षा में वह आचारांग सूत्र में कहा है 'खणं जाणाहि पंडिए' अर्थात् जो वर्तमान स्थूल और सूक्ष्म शरीर से भी गहराई में पहुँचकर चेतन, अवचेतन क्षण को जानता है, वही ज्ञानी है। वर्तमान क्षण की प्रेक्षा एकाग्रता और अचेतन मन को देखने समझने लगता है। वह चेतन मन में का उत्कृष्टतर रूप है, जहाँ सूक्ष्मतम कालबिन्दु पर चित्त की 0.00.0 उठने वाले संकल्प-विकल्पों को तटस्थभाव से देखता है और एकाग्रता होती है। इस प्रेक्षा को पतञ्जलि स्वीकृत निर्विचार समाधि धीरे-धीरे उनके ध्यान से अवचेतन मन में और उसके बाद अचेतन के समानान्तर कहा जा सकता है। जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान PHONO 00:00:00 800 699900 10:00 3600Page Navigation
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