Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 21
________________ खिइ-वलय-दीव-सागर-नरय-विमाण-भवणाइसंठाणं। वोमाइपइट्ठाणं निययं लोगट्ठिइविहाणं ॥५४॥ धर्म ध्यान के साधक को पृथ्वी, वायुमण्डल, समुद्र, नरक, विमान और भवन के आकार के बारे में तथा आकाश द्रव्य पर आधारित लोकस्थिति की शाश्वत व्यवस्था के बारे में भी विचारलीन रहना चाहिए। उवओगलक्खणमणाइनिहरणमत्थंतरं सरीराओ। जीवमरूविं कारि भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥५५॥ जीव का लक्षण उपयोग यानी ज्ञान, दर्शन है। वह (जीव) अनादि अनन्त है। शरीर से भिन्न और अरूपी है। वह अपने कर्मों का खुद ही कर्ता तथा भोक्ता है। तस्स य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं। वसणसयसावयमणं मोहावत्तं महाभीमं ॥५६॥ अण्णाण-मारुएरियसंजोग-विजोगवीइसंताणं। संसार-सागरमणोरपारमसुहं विचिंतेजा ॥५७॥ जीव के कर्मों से उत्पन्न हुए संसार रूपी समुद्र में जन्ममरण का जल, कषायों के पाताल, दुःखों के हिंसक जलजीव और मोह के भंवर हैं। उसमें अज्ञान रूपी महाभयंकर वायु के कारण मिलन-विरह की लहरें सतत उठती रहती हैं। यह संसार समुद्र अनादि, अनन्त और अशुभ है। धर्म ध्यान में रत व्यक्ति को यह चिन्तवन भी करते रहना चाहिए। 20

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