Book Title: Dhyan Shatak
Author(s): Jinbhadra Gani Kshamashraman, Jaykumar Jalaj, Manish Modi
Publisher: Hindi Granth Karyalay

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Page 31
________________ सीयाऽऽयवाइएहि य सारीरेहिं सुबहुप्पागारेहि। झाणसुनिच्चलचित्तो न ब (बा) हिजइ निजरापेही॥१०४॥ जो चित्त ध्यान में लीन रहता है वह कर्मों की निर्जरा की प्रतीक्षा में होता है। उसे शीत, ताप आदि बहुविध शारीरिक दुःखों का अहसास नहीं होता। इय सव्वगुणाधाणं दिट्ठादिट्ठसुहसाहणं झाणं। सुपसत्थं सद्धेयं नेयं झेयं च निच्वंपि॥१०५॥ वास्तव में ध्यान में तमाम गुण हैं। वह दृष्ट और अदृष्ट सुखों का साधन है। अतिशय प्रशस्त है। उस पर श्रद्धा रखनी चाहिए। उसे जानना चाहिए। उसे अपने चिन्तन का विषय बनाना चाहिए।

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